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________________ महाप्रज्ञ उवाच हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा नाड़ी-संस्थान को जागृत कर लेते हैं। यह जागरण बहुत महत्त्वपूर्ण है। नाड़ी-संस्थान जितना मजबूत होता है उतना ही मजबूत वह व्यक्ति होता है। मांस और हड्डियां ये तो नाड़ी-संस्थान की रक्षा करने वाले साधन हैं। महत्त्वपूर्ण है नाड़ी-संस्थान। ज्ञानवाही और क्रियावाही नाड़ियों का ही सारा कर्तृत्व है। हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा स्नायुओं को इतना जागृत कर लें कि वे हमारे सभी निर्देशों का अवश्य पालन करें और वे भीतर से आने वाले प्रवाह को बाहर न आने दें, प्रकट न होने दें। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य शरीर-प्रेक्षा की अच्छी निष्पत्ति है। शरीर-विज्ञान के अनुसार शरीर की सामान्य स्वस्थ दशा (होमियोस्टासिस) का आधार है-शरीरस्थ स्वायत्त नाड़ी-तंत्र की दो धाराओं-अनुकम्पी (सिम्पैथेटिक) और परानुकम्पी (पैरासिम्पैथेटिक) संस्थान के बीच संतुलन बनाए रखना। यह संस्थान शरीर की समस्त स्वतःचालित क्रियाओं का नियमन करता है। जैसे-फुफ्फुस, आमाशय और पाचन तंत्रीय अवयव, हृदय-गति, रक्त-चाप, रक्त में शर्करा की मात्रा आदि। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शरीर के सारे आन्तरिक क्रिया-कलापों को यह संचालित करता है। अब जिस समय शरीर-प्रेक्षा के दौरान चित्त किसी अवयव-विशेष या हिस्से पर ज्योंही केन्द्रित होता है, चित्त की संकल्प-शक्ति का नियंत्रण स्वायत्त (अवचेतन) क्रिया पर हो जाता है। अब चित्त स्वयं उसका संचालक बन जाता है। उदाहरणार्थ, श्वास-प्रेक्षा में चित्त का नियंत्रण श्वास-नियमन केन्द्र (जो मस्तिष्क के आयताकार अन्तःस्था नामक हिस्से में-मस्तिष्क के पीछे के हिस्से में-सुषुम्नाशीर्ष में है) पर होने लगता है। शरीर-प्रेक्षा में चित्त हृदय की गति पर ज्योंही केन्द्रित होता है, प्राणदा नाड़ी (वेगस नर्व) जो हृदय का नियंत्रण करती है, को चित्त की जागरूकता से प्रभावित किया जा सकता है। प्रारम्भिक अभ्यास-दशा में यद्यपि अवबोध या अनुभूति उतनी तीव्र या शक्तिशाली नहीं होती जिससे कि नियंत्रण सध सके। फिर भी चित्त (ध्यान) को शरीर के विभिन्न अंगोपांगों पर केन्द्रित करना बहुत ही आवश्यक है, जिससे कि हम चित्त (चेतन मन) को हमारी चेतना के उन अन्य अंगों के साथ जोड़ सकें, जो अवचेतन रूप में हमारे शरीर के तापमान आदि को सामान्य बनाए रखते हैं या पाचन आदि क्रियाओं का नियमन करते हैं। केवल यही रास्ता है चेतन और अवचेतन मन के बीच एक सामञ्जस्य पैदा करने का जिससे शरीर के तनाव आदि दूर होकर उसकी स्वस्थ दशा का निर्माण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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