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________________ महाप्रज्ञ उवाच शरीर तंत्र चल रहा है। मानव की कोई विशालतम फैक्ट्री चल रही हो। शरीर में हजारों-हजारों परिणाम घटित हो रहे हैं, हजारों घटनाएं घटित हो रही हैं। फिर भी मनुष्य को कुछ भी पता नहीं है। वह जान ही नहीं पाता कि कुछ हो रहा है। इसका कारण है कि संवेदन को पकड़ नहीं पाता। बहुत गहरा ध्यान देने पर ही पता लगता है कि शरीर के भीतर कितनी सक्रियता है। नाड़ी चल रही है। रक्त का संचरण हो रहा है, हृदय धड़क रहा है, मन के सूक्ष्म हुए बिना इन सबका पता ही नहीं चलता। हमारा मन भी इतना स्थूल हो गया है कि वह स्थूल को ही पकड़ पाता। सूक्ष्म को पकड़ने के लिए मन को सूक्ष्म बनाना पड़ता है। साधना का क्रम मन को सूक्ष्म बनाने का क्रम है। मन की यात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाएगी, मन सूक्ष्म होता जाएगा। और फिर हम सूक्ष्म को पकड़ने में सक्षम हो जाएंगे। जब सूक्ष्म की पकड़ होगी तो स्थूल की पकड़ छूटेगी, तब स्थूल संवेदन छूटते जाएंगे और सूक्ष्म संवेदन हस्तगत होते जाएंगे। ___ हमारा शरीर तो इतना छोटा, पतला और संकरा है कि वहां तो गहराई जैसी कोई बात नहीं है। यदि हम चर्मचक्षु से देखेंगे, तो गहराई की बात समझ में नहीं आएगी। किंतु जब हम चेतना की परतों को देखते हैं, सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करते हैं तो हमें पता चलता है कि इस शरीर के भीतर कितनी गहराइयां हैं, जितनी दुनिया में किसी वस्तु की नहीं है। इन सारी गहराइयों को पार करने के लिए पूरा प्रयत्न करना होगा, अनायास कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा। शरीर प्रेक्षा केवल दर्शन का अभ्यास है। केवल देखना हो, उसके साथ कोई प्रियता का या अप्रियता का संवेदन न हो, रागद्वेष की कोई ऊर्मि या तरंग न हो। शरीर प्रेक्षा निस्तरंग दर्शन है चेतना का। सामान्यतः व्यक्ति कि दृष्टि केवल प्रियता और अप्रियता के साथ जुड़ी हुई है, उसके परे की बात वह सोच ही नहीं सकता। इस द्वन्द्व-प्रियता-अप्रियता-से परे गए बिना परिवर्तन घटित नहीं होता। इस द्वन्द्व से परे दृष्टि का निर्माण शरीर प्रेक्षा से होता है। आंखों से देखना देखना नहीं है। जब हमारी चित्त की प्रवृत्ति होती है, चित्त सक्रिय होता है, किंतु उसके साथ कोई विकल्प नहीं होता, कोई शब्द नहीं होता, कोई कल्पना नहीं होती, कोई विचार नहीं होता, कोई चिंतन नहीं होता, कोई मनन नहीं होता, कोई स्वप्न नहीं होता, कोई स्मृति नहीं होती। उस चित्त की सक्रियता का नाम है देखना। देखने में केवल देखना होता है। कोरा अनुभव होता है। चित्त को शरीर के एक-एक अवयव पर ले जाकर वहां पर होने वाले परिणमन, स्पंदन और प्रकंपन आदि को द्रष्टा भाव से देखना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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