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महाप्रज्ञ-दर्शन
अज्ञानवश यह समझते हैं कि हमने क्रोध किया तो इसका हृदयाघात से कोई संबंध नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि क्रोध एक भाव है। यह भाव उत्पन्न होते ही शरीर में ऐसा रसायन पैदा कर देता है जो विषाक्त है। वे विषाक्त रसायन हृदय रोग ही नहीं, जाने और भी कौन-कौन से कैंसर जैसे जानलेवा रोग पैदा कर देते हैं। हम यह भी जान लें तब भी यही मानते रहते हैं कि क्रोध किया, यह एक अलग बात है-और कैंसर हो गया-यह एक अलग बात है। हम ऐसा इसलिए मानते हैं कि हमें क्रोध से रोग उत्पन्न करने वाले रसायन पैदा होते हुए दिखाई नहीं देते। विज्ञान की कृपा से अब हमें यह दिखायी देने लग गया है। विज्ञान की यह विशेषता है कि बिना देखे वह कुछ भी नहीं मानता। विज्ञान की दूसरी विशेषता यह है कि जिसे कोई एक व्यक्ति देख सकता है विज्ञान उसे किसी दूसरे व्यक्ति को भी दिखा सकता है। इसीलिए विज्ञान की इतनी प्रतिष्ठा है कि विज्ञान जो कुछ कहता है उसे सबको मानना ही पड़ता है। धर्म के क्षेत्र में नास्तिक हो सकते हैं, लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में नास्तिक नहीं हो सकते। लेकिन विज्ञान के आस्तिक की परिभाषा दूसरी है। वह यह नहीं मानता कि अमुक वैज्ञानिक ने जो कहा उसे अन्तिम सत्य मानना है। वह मानता है कि अन्तिम सत्य किसी ने जाना ही नहीं किंतु जितना सत्य आज तक जाना गया है, वह है तथ्य पर आश्रित, वह किसी अन्ध-श्रद्धा पर नहीं टिका है। विज्ञान की विधि ही कुछ ऐसी है। आस्तिकता और नास्तिकता
एक विचारक हुए हैं-चार्वाक। उन्होंने कहा कि शरीर ही आत्मा है। सभी आत्मवादियों ने चार्वाक को पेट भरकर कोसा। "नास्तिक" शब्द भारतीय चिन्तन में एक गाली जैसा है। यूं तो सभी दर्शन वाले एक-दूसरे को नास्तिक समझते रहे हैं किंतु चार्वाक की नास्तिकता सबसे अधिक प्रसिद्ध हो गई। उसने कहा कि
१. ईश्वर नहीं है। २. कर्म का फल भोगने के लिए पुनर्जन्म नहीं होता। ३. प्रत्यक्ष के अतिरिक्त आगम तो क्या, अनुमान भी प्रमाण नहीं है। ४. जड़ के अतिरिक्त कोई चेतन नाम का तत्त्व नहीं है। जड़ पदार्थों के
संयोग से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है।
इन चार निषेधों के कारण चार्वाक की नास्तिकता चहुँमुखी है। जैन, बौद्ध भी सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानते तथा आगमों में वेद को प्रमाण नहीं मानते हैं अतः ईश्वरवादी तथा वेदवादी उन्हें नास्तिक कहते हैं यद्यपि पाणिनि
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