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भावभूमि नास्तिक उसे कहते हैं जो कर्मफल और पुनर्जन्म को न माने और इस दृष्टि से जैन तथा बौद्ध भी आस्तिक हैं। ईश्वर को न मानने वाले तो सांख्य तथा मीमांसक भी हैं किंतु वे वेद को मानते हैं। वेदान्ती ईश्वर को मानते हैं किंतु उनका ईश्वर नैयायिकों के ईश्वर से सर्वथा भिन्न है। जैसा ईश्वर, ईसाई या मुसलमानों का है वैसा ईश्वर वेदवादियों में शायद नैयायिकों का ही है। जैनाचार्य प्रायः ईश्वर की नैयायिक सम्मत अवधारणा का ही खण्डन करते हैं।
इस भूमिका के साथ प्रस्तुत प्रसंग में हमें चार्वाक की चतुर्थ मान्यता पर ही कुछ विशेष चर्चा करना अभिप्रेत है-क्या शरीर जड़ पदार्थों से ही मिलकर बना है और एक परिमाण विशेष में एक क्रम विशेष से मिलकर जड़ पदार्थ ही शरीर में चेतना उत्पन्न कर देते हैं अथवा चेतना कोई स्वतंत्र तत्त्व है ? इस विषय में चार दृष्टियां हमारे सम्मुख हैं१. चेतना ही एकमात्र तत्त्व है। चेतन ही जड़ बनता है। यह वेदान्त का मत
२. जड़ ही एक मात्र तत्त्व है। चेतना उसी से उद्भूत होती है। यह चार्वाक
का मत है। ३. जड़ और चेतन दो पृथक् तत्त्व हैं किंतु दोनों एक-दूसरे से प्रभावित नहीं
होते। यह सांख्य मत है। ४. जड़ और चेतन दो पृथक् तत्त्व हैं तथा दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते
हैं। यह जैन मत है। ___शरीर मुख्यतः चिकित्साशास्त्रियों का विषय है। चिकित्सा-शास्त्री मुख्यतः वैज्ञानिक होते हैं और वे दार्शनिक चर्चाओं में नहीं उलझा करते। आज जो तथ्य हमारे सम्मुख चिकित्साशास्त्रियों ने रखा है वह यह है कि जड़ को चेतन तथा चेतन को जड़ प्रभावित करते रहते हैं। कम से कम शरीर के संदर्भ में यह तथ्य प्रत्यक्ष गोचर है। इस विषय का प्रतिपादन हम पहले ही कर चुके हैं। यह सत्य है कि चिकित्साशास्त्र आत्मा नाम के तत्त्व को अभी तक नहीं मानता है किंतु विचारों और भावनाओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है-इसकी खोज चिकित्साशास्त्री निरन्तर कर रहे हैं। क्वाण्टम सिद्धान्त और प्राण तत्त्व
___ एक विषय जो विज्ञान की खोज के कारण नयी दृष्टि लेकर उपस्थित हुआ है वह है शरीर में प्राण का महत्त्व । विज्ञान ने एक खोज की है कि हमारा पूरा विश्व जिन तत्त्वों से बना है वह तत्त्व "क्वाण्टम" है। "क्वाण्टम" का अर्थ है “ऊर्जासमूह"। जिसे विज्ञान “ऊर्जा” कहता है भारतीय दार्शनिक उसे ही
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