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० तत्रैकाग्रता च
०
पर एकाग्रता ।
०
मानसिक चित्रनिर्माणेन च
०
रूपान्तरण का पहला चरण है- कल्पना ।
कार्य की सफलता के लिए सबसे पहले जरूरी है- स्पष्ट कल्पना कल्पना का अगला चरण है-मानसिक चित्र का निर्माण और फिर उस
० कुम्भके वीतरागध्यानम्
यह दृढ़ भावना और दृढ़ संकल्प बना रहे कि वीतराग हमारे अन्तःकरण में उतर रहा है। विधायक कल्पना रेचन के साथ नहीं, पूरक के साथ। फिर कुंभक में "तम्मुत्ति" का अनुभव, वीतराग का ध्यान | जैसी हमारी बुद्धि, चित्त का निर्माण, धारणा वैसा हमारा परिणमन ।
रेचने निषेधात्मकभावविरेचनम्
पूरके विधायककल्पना
० वीतरागे शुक्लवर्णभावना
वीतराग के साथ श्वेतवर्ण की भावना करें। वीतराग के स्वरूप की स्पष्ट धारणा हो ।
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स्वरूपसन्धानजिज्ञासायामावेगवशीकरणम्
जिस व्यक्ति में अपने स्वरूप के सन्धान की बात चेतना पर उतर आती है, वह व्यक्ति आवेगों में परिवर्तन करने में सक्षम हो जाता है ।
महाप्रज्ञ-दर्शन
वैराग्य-समता-प्रसन्नता - एकाग्रताः चैतन्यजागरणोद्भवाः
चैतन्य जागरण का पहला बिंदु है - वैराग्य, दूसरा समता, तीसरा प्रसन्नता और चौथा एकाग्रता ।
०
० पदार्थः पदार्थत्वावच्छिन्नो रागद्वेषापगमे
जब मन से प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है तब पदार्थ-पदार्थ मात्र रह जाता है। प्राणी- प्राणी मात्र रह जाता है ।
चेतनाशान्तिश्चेतनयैव निवारयितुं शक्या
वैराग्य को जगाये बिना, पदार्थ के प्रति होने वाले आर्कषण को कम किये बिना, चैतन्य के प्रति आकर्षण पैदा किये बिना इस मानसिक अशान्ति का कोई स्थायी समाधान नहीं है। चेतना की अशांति को चेतना के जागरण के द्वारा ही मिटाया जा सकता है।
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