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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनः पादः
कायोत्सर्ग-आसन-बन्ध-व्यायाम - प्राणायामाः शरीरशुद्धयुपायाः
निस्सङ्गता च
काय शुद्धि के पांच उपाय हैं- कायोत्सर्ग, आसन, बंध, व्यायाम और प्राणायाम। ये पांचों शरीर की प्रवृत्ति से जमने वाले मलों को साफ करते हैं किंतु शरीर में कोरा प्रवृत्ति का ही मल नहीं जमता । उसमें मल जमता है - भावना, आसक्ति और अन्तःकरण के द्वारा। संस्कारों का मल भी जमता है । आज परीक्षण किये जा चुके हैं कि विचारों के विष हमारे नाखूनों और विभिन्न अवयवों में जमा होते हैं । इनकी धुलाई होती है - निस्संगता के द्वारा, अनासक्ति के द्वारा और विचारों के स्नेहीकरण के द्वारा । यह कायशुद्धि का छठा उपाय है ।
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० अधोलोके कुवृत्तयः
सारी बुरी वृत्तियां पेडू के पास वाले स्थान से लेकर नाभि के स्थान तक या हृदय के स्थान तक जन्म लेती है। इतना ही स्थान है इनका । इस सत्य को समझ लेने पर बदलने की बात समझने में बहुत सरल हो जाती है । O शरीरज्ञानं शारीरकज्ञानाय प्रभवति
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साधना के लिए शरीर को जानना भी आवश्यक है । जो बाहर के अधिष्ठान को ठीक से जानता है, वही उसमें रहने वाले को ठीक से जान सकता है । अतः आत्मा के साथ शरीर को भी जानना आवश्यक है ।
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आहार-नीहार-विहारेभ्य उदरशुद्धिः
ततः स्वास्थ्यम्
सुखी और स्वस्थ जीवन का माध्यम उदर है । जितने रोग होते हैं वे प्रायः उदरविकृति के कारण ही होते हैं। आरोग्य की जड़ उदर है । उदर की शुद्धि का संबंध तीन से हैं । वे हैं - आहार, निहार और विहार ।
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O संवेगात् ग्रन्थिस्रावाः
ततः स्वायत्ततन्त्रिका
ततः हाइपोथेलेमसम्
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ततस्तैजसशरीरम्
संवेग का संबंध ग्रन्थियों के स्राव और ग्रन्थियों का संबंध स्वायत्त तंत्रिका तंत्र से और स्वायत्त - तंत्रिका तंत्र का संबंध हाइपोथेलेमस से, हाइपोथेलेमस का संबंध तैजस् शरीर से ।
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० नाभ्या हृदये स्थित आत्मपरिणामे समता
दर्शनकेन्द्रे स्थिते ज्ञानम्
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