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________________ २६३ रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः उसके सारी लीनता बदल जाती है, आकर्षण बदल जाता है, श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा और प्रकंपन प्रेक्षा में व्यक्ति जब लीन होता है तब बाहर की लीनता अपने आप छूट जाती है। उसका कालबोध, दिशाबोध बदल जाता है। ० पराश्रितोऽज्ञानी ० आत्माश्रितो ज्ञानी जब तक अध्यात्म चेतना नहीं जागती तब तक सारा दोष दूसरों पर और उसके जागने घर सारा दायित्व अपने पर। प्रेक्षा जागती है तब भ्रान्तियां टूटती हैं, सत्य उपलब्ध होता है। ० सुख दुःख का दायित्व स्वयं पर है। ० सुख भीतर है। ० शांति भीतर है। ० स्वास्थ्य भीतर है। 0 दीर्घायु की कुंजी अपने हाथ में है। ० अनर्थविकल्पपरित्याग इति प्रथमम् ० सार्थकविकल्पग्रहणमिति द्वितीयम् ० निर्विकल्प इति तृतीयम् अनावश्यक विकल्पों को समाप्त करना आत्म-साक्षात्कार की प्रथम भूमिका है। कुछ विकल्पों को पुष्ट करते हैं, उन्हें कहते हैं- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र। यह आत्म साक्षात्कार की द्वितीय भूमिका है जहाँ कोई विकल्प विचार और कोई अनुभव नहीं होता। केवल चैतन्य होता है। यह आत्म साक्षात्कार की तीसरी भूमिका है। ० ध्याता-ध्येय-द्वैतं यात्रारम्भे ० यात्रान्तेऽद्वैतम् ० तदेव श्रद्धा ० सा गुणेषु, न व्यक्ती __हम अपने आदर्श के प्रति इतने श्रद्धावान् बनें, ऐसा तादात्म्य स्थापित करें कि हमारा द्वैत समाप्त हो जाए, ध्याता और ध्येय दो नहीं रहें, दोनों एक हो जाएं। प्रारंभिक अवस्था में ध्याता अलग होता है, ध्येय अलग होता है। जब श्रद्धा का पूरा परिष्कार होता है, वह शैशव अवस्था को छोड़कर प्रौढ़ अवस्था में आती है, तब ये तीनों-ध्याता, ध्येय और ध्यान-एक हो जाते हैं। वही ध्याता, वही ध्येय और वही ध्यान तीनों में कोई अन्तर नहीं रहता। ऐसी अवस्था में ही श्रद्धा के परिणाम मिल सकते हैं। इस दुनिया में श्रद्धा न करना भी खतरनाक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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