________________
२६२
महाप्रज्ञ-दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में अर्थ बदल जाते हैं-वहाँ अर्थ है-जागना, भीतर देखना । ० बाह्यसाधनैरस्थायिपरिवर्तनम् ० स्थायि अध्यात्मविद्यया
अध्यात्मविद्या का विकास मानव का सर्वोपरि विकास है। अध्यात्मविद्या के द्वारा जो अनुशासन प्राप्त होता है, वह किसी अन्य विद्या से प्राप्त नहीं होता। इन्द्रिय मन, विचार और भाव पर केवल अध्यात्म के द्वारा ही अनुशासन हो सकता है, अन्य किसी के द्वारा नहीं हो सकता। आदमी को सुलाया जा सकता है, मूर्छा में पटका जा सकता है, इलेक्ट्रोड लगाकर कुछ क्षणों के लिए बदला जा सकता है, पर उसके व्यक्तित्व का स्थायी रूपांतरण नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से क्रोध और आवेग को शांत किया जा सकता है, कामवासना और भूख को रोका जा सकता है, दर्द को शांत किया जा सकता है, पर सब होता है कुछ समय के लिए, अल्पकाल के लिए। ये उपकरण व्यक्तित्व का स्थायी रूपांतरण नहीं कर सकते। ० पिण्डे ब्रह्माण्डदर्शनम्
इस जगत् का सबसे बड़ा सार तत्त्व हमारे शरीर के भीतर है। उसके दर्शन से जैविक रासायनिक परिवर्तन होते हैं। अन्तःस्रावी ग्रंथियों के रसायन बदलते है। नाड़ी संस्थान पर नियंत्रण होता है। मूर्छा टूटती है और चैतन्य जागृत होता हैं। आत्मा का अस्तित्व शरीर के माध्यम से प्रकट होता है जो शरीर को देखना नहीं जानता वह अन्तर्भाव में अवस्थित चैतन्य केन्द्रों का दर्शन करना नहीं जानता। वह अपने अस्तित्व को भी नहीं जानता। ० स्वास्थ्यमानुषङ्गिकं फलं ध्यानस्य
ध्यान के संदर्भ में एक गौण ध्येय है-शारीरिक स्वास्थ्य |... इतना विवेक अवश्य जागना चाहिए-ध्यान आत्मशुद्धि अथवा आत्मा की उपलब्धि के लिए है। शारीरिक स्वास्थ्य उसका प्रासंगिक फल है। ० सम्यग्योगः प्रतिसंलीनता चेन्द्रियशद्ध्युपायः
इन्द्रिय शुद्धि के दो उपाय है:-१. स्वविषयान् प्रति सम्यग् योग:-अर्थात् अपने-अपने विषयों के प्रति सम्यग् योग होना। इन्द्रिय विषयों के प्रति ज्ञाताद्रष्टा भाव का विकास करना न कि प्रियता और अप्रियता के भाव की। २. प्रतिसंलीनता-व्यक्ति की सारी लीनता पदार्थ के प्रति है, बाहर की ओर है। प्रियता और अप्रियता की बात छूटती है तब लीनता का क्षेत्र बदल जाता है। यह रसहीनता नहीं किंतु जो व्यक्ति अपने भीतर महान रस को खोज लेता है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org