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महाप्रज्ञ-दर्शन है और श्रद्धा करना भी खतरनाक है। दोनों ओर खतरा है। इससे बचने का एक ही रास्ता है और वह है आदर्श के प्रति आस्था । वीतराग हमारा आदर्श है। गुणात्मक श्रद्धा में कोई खतरा नहीं होता। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति नहीं होनी चाहिए। श्रद्धा गुणात्मक होनी चाहिए। ० शुद्धः प्रत्ययो ज्ञानम् ० रागद्वेषयुक्तोऽज्ञानम्
अज्ञान-जब ज्ञान के साथ राग-द्वेष, मोह आदि जुड़ जाते हैं तब वह ज्ञान अज्ञान है।
जहां ज्ञान और वेदना दोनों हैं वह है अज्ञान।
ज्ञान का अर्थ है-केवल ज्ञान, कोरा ज्ञान । ० संवेगनियंत्रणं वैराग्यमिति मनोवैज्ञानिकाः ० विचारनियंत्रणमेकाग्रता
मनोविज्ञान की भाषा में संवेदन नियंत्रण वैराग्य है। विचार का नियंत्रण एकाग्रता है। ० कामकेन्द्रोर्जामूर्वीकृत्य ज्ञानकेन्द्र स्थापनान्तर्मुखता
जब काम-केन्द्र की ऊर्जा को ऊपर ले जाते हैं, ज्ञान केन्द्र में ले जाते हैं या ज्ञान केन्द्र से नीचे नहीं उतरने देते तब स्थितात्मा हो जाते हैं। इस स्थिति में राग-द्वेष नहीं सताते। क्षोभ और मोह नहीं सताते, आवेश और वासनाएं नहीं सताती। यही अन्तर्मुखता की स्थिति है। ० क्रूरता-वैर-मूर्छा-अवज्ञा-अविश्वासाः स्वाधिष्ठानचक्रे जायन्ते ० तृष्णा-ईर्ष्या-लज्जा-घृणा-भय-मोह-कषाय-विषादाः मणिपूरचक्रे ० लोलुपता-हिंसा-फलाशा-चिंता-ममता-दम्भ-अविवेक-अहङ्काराः अनाहतचक्र
योग का एक ग्रंथ है-आत्मविवेक। उसमें बताया है कि क्रूरता, वैर, मूर्छा और अविश्वास-ये सब स्वाधिष्ठान चक्र में उपन्न होते हैं। तृष्णा, ईर्ष्या, लज्जा, घृणा, भय, मोह, कषाय और विषाद-ये सब मणिपूर चक्र में जन्म लेते हैं।
तीसरा है अनाहत चक्र । यह हृदय के स्थान का चक्र है। इस चक्र में लोलुपता, तोड़फोड़ की भावना, आशा, चिंता, ममता, दंभ, अविवेक, अहंकार-सारे जन्म लेते हैं।
ये तीन चक्र हैं-स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र और अनाहत चक्र । जहाँ हमारी सारी वृत्तियां जन्म लेती हैं। अब हम लेश्या की दृष्टि से विचार करें। अविरति, क्षुद्रता, निर्दयता, नृशंसता, अजितेंद्रियता-ये कृष्ण लेश्या के परिणमन
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