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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः
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० समतायामेव पदार्था अपि सुखप्रदाः ० नान्यथा
समता है तो पदार्थ भी सुख दे सकता है। यदि समता नहीं है तो हजार पदार्थ होने पर भी मन बेचैन, उदास और संतप्त बना रहता है। ० ज्ञाने न सुखदुःखे
ध्यान की परम्परा में एक ऐसी ही अवस्था होती है जहाँ केवल ज्ञानात्मक पक्ष होता है। जहाँ न सुखद भाव और न दुःखद भाव । मात्र तटस्थता का भाव। ० इन्द्रियैः प्राप्ते ज्ञाने तटस्थता
समाधि का परम बिंदु है-समता। इन्द्रियों का पूर्ण निरोध संभव नहीं अतः जो आता है उसे आने दें। ऐसी चेतना जागृत करें कि जो आये उसे देखें उसके साथ प्रियता-अप्रियता को न जोड़ें। ० निर्विकल्पं मनः, शिथिलं शरीरं, प्रकम्पानामग्रहणञ्चेति सामायिकार्थः
सामायिक का अर्थ है-प्रकम्पनों को समाप्त करना। इसे संवर भी कहते हैं। इसके लिए तीन बातें जरूरी है
१. मन की शिथिलता-मन को विकल्पों से खाली कर देना। २. शरीर की शिथिलता-शरीर को तनावों से मुक्त कर देना।
३. प्रकम्पनों का अग्रहण। ० ज्ञानध्यानयोर्विकल्पनिर्विकल्पयोस्सञ्चयव्यययोर्गुप्तिसमित्योः स्मृतिविस्मृतयोर्वचनमौनयोः प्रवृत्तिकायोत्सर्गयोश्च संतुलनम्।
समस्या मुक्ति के लिए संतुलन करें।
ज्ञान और ध्यान का संतुलन करें। विकल्प चेतना और निर्विकल्प चेतना का, शक्ति व्यय और शक्ति संचय, आवृत्त चेतना और अनावृत्त चेतना का, स्मृति और विस्मृति का, वाणी और मौन का, शरीर की चंचलता और कायोत्सर्ग का संतुलन करें। ० चेतनाया ऊर्वीकरणे परिष्कारः
काम केन्द्र की ओर प्रवाहित होने वाली चेतना को ऊपर उठाकर ज्ञान केन्द्र में ले जाना। नीचे के प्रवाह को ऊपर की ओर मोड़ देना। यह शुद्ध आलम्बन की स्वीकृति है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है। इस प्रयत्न से सारी वृत्तियों का परिष्कार होता है, मन का अनुशासन सधता है।
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