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महाप्रज्ञ-दर्शन ० भावक्रियायां सदा ध्यानम्
जब भावक्रिया सध जाती है तब ध्यान की पद्धति केवल एक घंटा बैठकर करने की पद्धति नहीं रहती, वह समग्र जीवन दर्शन बन जाता है। इस स्थिति में प्रत्येक क्रिया में ध्यान बना रहेगा। ० कायोत्सर्गे स्थिरतायां स्नायुतंत्र-मस्तिष्कीयविद्युत्-शरीरबुद्धिजड़ता ___शीतोष्णद्वन्द्वेषु अनुकूलप्रभाव: ० ततः स्थूलशरीरानवबोधः ० ततः चैतन्यानुभवः
कायोत्सर्ग की प्रथम अवस्था में स्थिरता प्राप्त होती है। दूसरी अवस्था में कुछ विशिष्ट परिवर्तन होते हैं यथा० स्नायुतंत्र प्रभावित होता है। ० मस्तिष्क की तरंगों और मस्तिष्कीय विद्युत में परिवर्तन आ जाता है। ० ऑक्सीजन की खपत कम हो जाती है। 6 श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। ० जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। ० सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों को सहने की क्षमता बढ़ती है। ० चित्त की एकाग्रता सुलभ हो जाती है।
अग्रिम अवस्था में स्थूल शरीर का बोध क्षीण हो जाता है । सूक्ष्म शरीर की सक्रियता बढ़ती जाती है। इन्द्रियों का अनुभव क्षीण हो जाता है। बाद की अवस्था में आत्मा के चैतन्यमय स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। ० ज्योतिः केन्द्र श्वेतवर्णे ध्यायिते कषायोपशमः ० प्राणकेन्द्रे ध्यायितेऽप्रमादः
जो व्यक्ति प्रिय-अप्रिय संवेदनों से मुक्त होना चाहता है, वह ज्योति केन्द्र पर ध्यान करे। जिस व्यक्ति ने ज्योति केन्द्र पर श्वेत रंग या अन्य निर्दिष्ट रंगों का ध्यान किया है, उस व्यक्ति ने क्रोध, अहंकार, द्वेष और राग से छुटकारा पाया। इस प्रयोग से कषाय-विजय प्राप्त होता है।
प्राण केन्द्र पर ध्यान करने से प्रमाद आश्रव पर विजय प्राप्त होती है। ० अतीते प्रतिक्रमणे, वर्तमाने संवरे, भविष्यति प्रत्याख्याने च ग्रन्थिभेदः
बीमारी की जड़ बहुत गहरी होती है। ध्यान करने का प्रयोजन है उस जड़ तक पहुंच जाना। ध्यान में तीन कालों का समाहार है-अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान का संवर और भविष्य का प्रत्याख्यान । यह भाव-चिकित्सा
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