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महाप्रज्ञ-दर्शन असीम शक्ति के स्रोत में बदल जाते हैं। इसी परिवर्तन का नाम है-आत्मोदय या अस्तित्व का उदय।
अहंकार, ममकार और चंचलता के विसर्जित होने पर एक असाधारण शून्यता प्राप्त होती रहती है। यह शून्यता मूर्छा या निद्रा जैसी शून्यता नहीं होती। इसमें चैतन्य की अनुभूति तीव्र हो जाती है। यह शून्याशून्य की स्थिति है। इसे निषेध की भाषा में चैतन्य के साथ माध्यम-विहीन सम्पर्क कहा जा सकता है। ० नायोगो नातियोगः
आयुर्वेद में एक सिद्धान्त के तीन अवयवों की चर्चा की है। वे तीन अवयव हैं-योग, अयोग और अतियोग। अयोग हो तो कोई बात पनपती ही नहीं। किसी व्यक्ति को शिक्षा का अयोग हो तो वह नितांत मूर्ख ही बना रहेगा। अतियोग भी हानिकारक होता है। कोई व्यक्ति रात-दिन पढ़ता ही रहे तो शक्ति शून्यता आ जायेगी। वह कुछ भी नहीं कर पायेगा। न अयोग हो और न अतियोग हो किंतु योग होना चाहिए। दिन में दो-चार घंटा पढ़ा, फिर विश्राम किया, फिर पढ़ा, फिर विश्राम किया। यह है इच्छा पर नियंत्रण, अनुशासन । योग का अर्थ है-परिष्कृत इच्छा पर नियंत्रण, संयम। ० सुषुम्नायां प्राणप्रवाहे सति समता
हमारे नाड़ी-संस्थान के तीन हिस्से हैं-परानुकम्पी, अनुकम्पी और केन्द्रीय नाड़ी-संस्थान। यह केन्द्रीय नाडी-संस्थान दोनों नाडी-संस्थानों का नियंत्रण करता है। ये तीनों हमारे ग्रन्थितंत्र पर नियंत्रण रखते हैं। हठयोग की भाषा में कहा जा सकता है-इड़ा और पिंगला। इन दो प्राण प्रवाहों का असंतुलन होना विषमता है और सुषुम्ना में प्राण प्रवाह का चालू होना समता है। शरीर शास्त्रीय भाषा में कहा जा सकता है कि परानुकम्पी और अनुकम्पी नाड़ी-संस्थान का असंतुलन विषमता है और केन्द्रीय नाड़ी संस्थान के द्वारा उनका संतुलन होना समता है। हठयोग में सुषुम्ना का महत्त्व है। जैन योग में समता और सुषुम्ना को पर्यायवाची माना जा सकता है। सुषुम्ना की अवस्था समता की अवस्था है। सुषुम्ना का जागरण समता का जागरण है और जब समता जागती है तो सुषुम्ना जाग जाती है। ० वामदक्षिणमस्तिष्कसन्तुलनं समतोपायः
समता के विकास का एक उपाय है-दाएं-बाएं मस्तिष्क का संतुलन स्थापित करना। दोनों को जगाना। किसी को भी निरन्तर सोने नहीं देना चाहिए।
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