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________________ २७० महाप्रज्ञ-दर्शन इस पार रह जाता है और अध्यवसाय उस पार रह जाता है। शरीर और अध्यवसाय का कोई संबंध नहीं है। ० यथा भावस्तथा मुद्रा एक होती है भाव-मुद्रा और दूसरी होती है भाव-धारा। दोनों में बहुत गहरा संबंध है। जैसी भाव-धारा होती है, वैसी भाव मुद्रा बन जाती है। मुद्रा का निर्माण करती है-भाव-धारा। क्रोध का भाव जागे तो क्रोध की मुद्रा बन जाएगी। ० समर्थ एव सहिष्णुर्न कायरो निर्बलो वा आज सहिष्णुता का अर्थ गलत समझ लिया गया। सहिष्णुता का अर्थ न कायरता है, न कमजोरी और न दब्बूपन। सहिष्णुता महान् शक्ति है। बहुत शक्तिशाली आदमी ही सहिष्णु हो सकता है। कमजोर आदमी कभी सहिष्णु नहीं हो सकता। कमजोर सहन कर ही नहीं सकता। सहन करने का मतलब है कि शक्ति का विकास। ० विनयोऽहङ्कारशून्यता। ० स आत्मावस्था न तु परं प्रति भावविशेषः। __हमने मान लिया है कि विनय दूसरों के प्रति होता है। विनय दूसरे के प्रति नहीं होता। विनय होता है-स्वयं के प्रति । विनय है अहंकार शून्यता । यह अपनी आत्मा की अवस्था है। ० तादात्म्यीभावः सेवा ० समग्रतानुभूतिर्वा सेवा है तादात्म्य की स्थापना करना। समग्रता की अनुभूति का प्रयोग है-सेवा। ० हीरनुशासनहेतुर्यद्यपि न सात्मानुशासनम् लज्जा, अनुशासन और मानसिक संकोच-रचनात्मक भय के ही नाम हैं। रचनात्मक भय को हम लज्जा कह सकते हैं, अनुशासन कह सकते हैं, मानसिक संकोच कह सकते हैं। मानसिक संकोच है तो आदमी बुरा काम नहीं करता । आत्मानुशासन अभी नहीं बना है, किंतु फिर भी अनुशासन है। ० भेदाभेदयोस्सामञ्जस्यं मैत्री मैत्री है भेद और अभेद में सामञ्जस्य की अनुभूति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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