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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे भावपादः ० भावो जीवस्य स्वरूपम् ० सो द्विविधः-कर्मोदयवशादौदयिकः स्वाभाविकश्च पारिणामिकः
__ भाव जीव का स्वरूप है। एक भाव वह है जो औदयिक भाव कहलाता है, कर्म के उदय से होने वाला भाव है। एक वह जो स्वभावतः ही चलता रहता है, जिसकी संज्ञा है-पारिणामिक भाव ।
० अतिविशुद्धे भावतन्त्रे स्वतश्शरीरापेक्षापूर्तिः
जिस व्यक्ति का भाव तंत्र बहुत प्रशस्त है, विशुद्ध है वह अपने शरीर के लिए आवश्यक तत्वों की पूर्ति अपने आप कर लेता है। ० चैतन्यपुद्गलयोगेन लेश्योत्पत्तिः
लेश्या चैतन्य और पुद्गल इन दोनों के योग से निर्मित होती है। चैतन्य की रश्मि पुद्गल को प्रभावित करती है। यह पारस्परिक प्रभाव ही लेश्या का मौलिक आधार है। ० आवनस्पति आमानवं लेश्या ० तस्मात्सर्वेषामाभामण्डलम्
लेश्या वनस्पति के जीवों में भी होती है। पशु, पक्षी तथा मनुष्य में भी होती है। इसलिए आभामण्डल भी प्राणिमात्र में होता है। ० कृष्ण-नील-कापोत-तेजः-पद्म-शुक्लाः षड्विधाः लेश्याः ० तेष्वाद्यास्तिस्रोऽशुभाः ० अन्त्यास्तिस्रश् शुभाः
वर्गीकरण में लेश्या के छह प्रकार बनते हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्या। कापोत लेश्या में कृष्ण और लाल-दोनों रंग मिश्रित होते हैं। उक्त दोनों वर्गीकरण निमित्त और उपादान के आधार पर किए गए हैं। अशुद्ध लेश्या का उपादान है-कषाय की तीव्रता और शुद्ध लेश्या का उपादान है-कषाय की मंदता । अशुद्ध लेश्या के निमित्त हैं-कृष्ण, नील और कापोत वर्ण वाले पुद्गल और विशुद्ध लेश्या के निमित्त हैं-रक्त, पीत और श्वेत वर्ण वाले पुद्गल। प्रथम तीन लेश्याओं में विचार क्लेशपूर्ण होते हैं और अन्तिम तीन लेश्याओं में विचार धारा क्लेश-रहित होती है। उनमें क्लेश और अक्लेश की तरतमता इस प्रकार रहती है
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