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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे भावपादः
२६६ ० बलवन्मिथ्यादर्शन-आकङ्क्षा-प्रमाद-कषाय-अशुभप्रवृत्ति-असंयम-क्षुद्रता
अविवेक-क्रूरताः फलं कृष्णलेश्यायाः __ आभामण्डल में काले रंग की प्रधानता हो तो समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है, आकांक्षा प्रबल है, प्रमाद प्रचुर है, कषाय प्रबल और प्रवृत्ति अशुभ है, मन, वचन और काया का संयम नहीं है, इन्द्रियों पर संयम नहीं है, प्रकृति क्षुद्र है, बिना विचारे काम करता है, क्रूर है
और हिंसा में रस लेता है। ० मननं मतिः, स्मरणं स्मृतिः, प्रत्यभिज्ञा संज्ञा, व्याप्तिज्ञानं चिन्तनम्।
मति का अर्थ है-मनन, विचार। स्मृति का अर्थ है-याद होना। संज्ञा का अर्थ है-प्रत्यभिज्ञा, पहचान। चिंता का अर्थ है-तर्कपूर्ण चिंतन, व्याप्ति या संबंधों की खोज। ० प्रयोगसिद्धज्ञानमनुभवः
अनुभव है व्यवहार ज्ञान, प्रयोग सिद्ध ज्ञान जो केवल सिद्धान्त नहीं, प्रयोग पर उतरे। ० अनुभवोऽकाट्यो, न तु तर्कः
जो अकाट्य होता है-वह तर्क नहीं हो सकता।
अनुभव मात्र अकाट्य होता है। ० सर्वे भावास्सूक्ष्मे लब्धजन्मानस्स्थूले प्रतिफलन्ति
हमारे सारे भाव सूक्ष्म जगत में जन्म लेते हैं और स्थूल शरीर में प्रतिबिम्बित होते हैं। ० सूक्ष्मे स्पन्दनानि तरङ्गमात्रं वा। भावे लेश्याः। स्थूले क्रियाः।।
कषाय या अतिसूक्ष्म शरीर में केवल स्पन्दन हैं कोरी तरंगें हैं । वहाँ भाव नहीं है। कोरी तरंगें हैं। अध्यवसाय में भी क्रोध की तरंगें होती हैं, क्रोध का भाव नहीं होता। वे तरंगें जब सघन होकर भाव का रूप लेती हैं तब लेश्या बन जाती हैं। लेश्या में पहुँचकर भाव बनता है। तरंग का सघन रूप भाव है और भाव का सघन रूप क्रिया है। ० अध्यवसायाः शरीरमतिक्रम्य तिष्ठन्ति।
एक है अध्यवसाय और एक है चित्त । चित्त तक की यात्रा शरीर सम्बद्ध यात्रा होती है। अध्यवसाय तक की यात्रा शरीर से परे की यात्रा होती है। जब हम अध्यवसाय तक पहुँचते हैं, वहाँ हमारा संबंध शरीर से छूट जाता है। शरीर
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