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० मनसि व्यवहारे च प्रवञ्चना
O न तु भावे,
व्यक्तित्व के पहचान की कसौटी यह मानस जगत् और व्यवहार जगत् नहीं है किंतु भाव जगत् है, जहाँ कोई धोखा नहीं हो सकता। जो जैसा है वैसा ही रूप वहाँ मिलेगा ।
• हस्वं स्वमाकर्षति
० न तु व्यापकम्
स्व जितना छोटा है, उसका उतना ही आकर्षण है । वह जैसे-जैसे
व्यापक होता है वैसे-वैसे आकर्षण कम होता जाता है ।
• सापेक्षव्यवहारस्सहानुभूतिः
सापेक्ष व्यवहार अर्थात् सहानुभूति पूर्ण व्यवहार ।
महाप्रज्ञ - दर्शन
० ममत्वे विसर्जिते तद्विस्तरः
• तद्विस्तरे तद्विसर्जनम्
ममत्व के विसर्जन से ममत्व का विस्तार हो जाता है, और ममत्व के विस्तार से ममत्व विसर्जित हो जाता है ।
० भेदविज्ञानं सम्यग्दर्शनम्
भेद विज्ञान यानि शरीर और आत्मा के पृथक् अस्तित्व का स्वीकार, यही सम्यक् दर्शन है।
• अहम्बद्धं दानम्, अहंविमुक्तस्त्यागः
दान और त्याग में बड़ा अन्तर है। दान में अहं बद्ध होता है, जबकि त्याग में वह मुक्त होता जाता है ।
० आन्तरिकचेतनायां व्यक्तित्वस्याखण्डता
आन्तरिक चेतना के धरातल पर अखण्ड व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है।
० मिथ्यादर्शनाकर्षणमूर्च्छा-रागद्वेषापगमे चेतनानावरणम्
अखण्ड व्यक्तित्व की दिशा में प्रस्थान का क्रम यह है - मिथ्या दृष्टिकोण, आकर्षण, मूर्च्छा और राग-द्वेष । इन चारों के समाप्त होने पर पांचवीं भूमिका में चेतना सर्वथा अनावृत हो जाती है।
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