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महाप्रज्ञ उवाच
प्यार करो तो हार मान लूं। मधु मिश्रित मुस्कान भरो तो, कांटों को उपहार मान लूं, निश्छल मन से विष भी दो तो, उसे सुधा की धार मान लूं।
विषम मार्ग जब मन चुनते हैं, हार-जीत तब ही बनते हैं, गरल-सुधा दोनों भाई हैं, विघ्नों को आभार मान लूं।
वक्र बनो तो और अडूंगा, शक्र बनो तो और लडूंगा, चक्र बनो तो रेखा को ही, जीवन का आधार मान लूं।
जीवन की परिभाषा आशा, चातक बस बूंदों का प्यासा, अन्तर् के इस बंधन को भी, महामुक्ति का द्वार मान लूं।
दीपक ऊपर से जलते हैं, फूल सदा ऊपर खिलते हैं, नख-शिख का एकत्व बनो तो, चरण-धूलि को सार मान लूं।
चाहे भार हरो न हरो फिर, चाहे जैसे घाव करो फिर,
आत्मा पर अधिकार करो तो, घावों का उपचार मान लूं। लघु कण बन जो घुल जाता है, कठिन हृदय भी खुल जाता है, चट्टानों के छेदों को फिर, निर्झर का सत्कार मान लूं।
हत्-तंत्री का तार हिले तो, स्वप्नों का आकार मिले तो,
भग्न हृदय के रूखे स्वर को, वीणा की झंकार मान लूं। स्पष्ट नहीं अनुमान चाहिए, पास नहीं व्यवधान चाहिए, मधुर कल्पना संजोने को, निर्गुण को साकार मान लूं।
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