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महाप्रज्ञ उवाच
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मैं ही होऊं मेरा सब कुछ, मुझको सब संसार चाहिए, और कल्पना की कूची से, रंगने का अधिकार चाहिए।
मुझे प्रगति के लिए सत्य का, सतत सहज आधार चाहिए, और सत्य को भी तो अपना, कोई स्फुट आकार चाहिए।
दूर भले हो क्षेत्र काल ये, जुड़ा कि मन का तार चाहिए, निरी सभ्यता निरा कि धोखा, अन्तर् का उद्गार चाहिए।
सूख न पाए सरिता का जल, प्रवहमान यह धार चाहिए, सुखद सृष्टि की नव रचना में, मानव का श्रृंगार चाहिए।
मंडराएं मधुकर चाहे पर, नहीं चरण का भार चाहिए,
दूर रहें उपकार सभी इस, मिट्टी का आभार चाहिए। अभिशापों की इस जगती में, जलधर को उपहार चाहिए, पर बूंदों को ममतामय इस, मिट्टी का ही प्यार चाहिए।
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