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काव्यालोचन
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पर उस बुद्धिमान के लिए क्या कहा जाये जो अपनी बुद्धि का उपयोग
दूसरों का शोषण करने के लिए कर रहा है
यदि मैं भगवान् होता
तो इस धरती पर एक भी आदमी बुद्धिमान् नहीं होता
क्या सर्वव्यापी प्रभु
सृष्टि इसलिए रचता है कि
बुद्धिमान् बुद्धिहीन का शोषण करता रहे ?
आचार्य जी कहते हैं कि मैं युगद्रष्टा हूं। उन्होंने दुनिया को बहुत करीब से देखा और रंग-बिरंगे कई गीत गुनगुनाये पर फिर भी उन्हें लगा होगा कि कितना भी गाओ, सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए तो अन्ततोगत्वा मौन का ही सहारा लेना होगा
गीत मत तुम गुनगुनाओ, मौन होकर बोलना ही बोलना है। वस्तुतः उनके समस्त गीत मौन में से झरें हैं, जैसे निराकार से समस्त आकार उपजते हैं
मुझे पता क्या महाशून्य ने ही सबको आधार दिया है मुझे पता क्या निराकार ने ही सबको आकार दिया है।
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