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________________ २३२ महाप्रज्ञ-दर्शन वाला समय वर्तमान है। कहीं उस समय में रहना ही तो सामायिक नहीं है ? यह ठीक है कि सामायिक समता है लेकिन विषमता के लिए दो समय चाहिए। जब वर्तमान एक समय का ही है तो उसमें विषमता को स्थान कहां मिल पायेगा? जो सामायिक में डूब गया वह राग-द्वेष के समुद्र से पार हो गया। यही समयसार है। हम समय में टिक नहीं पाते। राग-द्वेष की हिलोरें स्मृतियों और कल्पनाओं के झूले में हमें झुलाती रहती हैं। सत्य हमारे सामने इसी क्षण में है, पर हम क्षण को देख पायें तो सत्य को देख पायें । सत्य का यह हाल है कि दौड़ते तुप जो चलो वह दूर जाता सा लगेगा धैर्य से तुम जो चलो वह पास आता सा लगेगा सत्य के और हमारे बीच कुछ आवरण तो प्रकृति ने डाल रखे हैं और कुछ दीवारें स्वयं मनुष्य ने बना ली हैं आदमी-आदमी को इसलिए नहीं पहचानता कि वह उससे कभी मिला ही नहीं उन दोनों के बीच वर्ण जाति और सम्प्रदाय की दीवारें इतनी बड़ी खड़ी हैं कि पत्थर पर फूल कभी खिला ही नहीं दीवार को तोड़ कोई इस ओर न आ जाये इसी डर से वह तलवार को आकाश में उछाल रहा है यदि ये दीवारें टूट जार्ती तो आदमी के हाथ से तलवार अपने आप गिर जाती पर मुसीबत है कि उनकी नींव का पत्थर कभी हिला ही नहीं। एक सम्प्रदाय का आचार्य सम्प्रदाय को दीवार तो बता सकता है, पर क्या स्वयं उस दीवार को लाँघ भी सकता है ? आचार्य महाप्रज्ञ उस समय सम्प्रदाय की ही दीवार को नहीं अपितु दार्शनिक घेराबंदी को भी लाँघकर खुले आकाश में खड़े हो जाते हैं जब वे वस्तुवादी दर्शन के अनुयायी होकर भी प्रत्ययवादी की भाषा बोलने लगते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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