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काव्यालोचन
२३३ बीज में विस्तार होता, बीज क्या विस्तार क्या है चित्त में संसार होता, चित्त क्या संसार क्या है मृत् सलिल का योग पाकर बीज ही विस्तार बनता वासना का भोग पाकर चित्त ही संसार बनता।
जिसे अनेकान्त का अभय प्राप्त है, वही यह साहस जुटा सकता है कि वस्तुवादी होकर भी यह कह दे कि “चित्त ही संसार बनता” ऐसा साहस पहले भी आत्मख्याति के रचयिता अमृतचन्द्र सूरि दिखा चुके हैं जब द्वैतवाद के अनुयायी होकर भी उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि अनुभूति के स्तर पर द्वैत का कहीं पता ही नहीं चलता
किमधिकमभिदध्मः धाम्नि सर्वकषेऽस्मिन् । अनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥
अनेकान्ती यथार्थवादी होता है। वह सत्य को स्वीकार करता है, चाहे देखने में वह सत्य कितना भी अटपटा क्यों न लगे। विरोध है, इसलिए अनुभव का अपलाप करना अनेकान्ती को प्रिय नहीं। __आचार्य महाप्रज्ञ के यथार्थवाद के तेवर कुछ और ही हैं। गंगा बनकर उन तक पहुंचने वाला हिमालय उन्हें प्रिय है किंतु जो उन तक कभी नहीं पहुंचेगा वह सोने का सुमेरु उन्हें आकृष्ट नहीं करता। उन्हें सूरज का सहज प्रकाश चाहिए, स्वर्ग की कल्पना नहीं। बादल बनकर बरसने वाला समुद्र चाहिए, क्षीर सागर नहीं। नीम चाहिए, कल्पवृक्ष नहीं, क्योंकि
मैं उस नीम की पूजा करता हूं जो हवा के रथ पर बैठ घूमता है और मुझ तक पहुंचता है मेरे मन में कोई उत्साह नहीं है उस कल्पवृक्ष की पूजा करने के लिए भला फिर वह सब कुछ देने वाला हो (किंतु) जीवन और मौत की भांति मेरी और उसकी दूरी कभी नहीं मिटेगी।
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