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वह सब कुछ निगल जाये
वह जलती है
इसलिए कि
चैतन्य में से
धुँआ निकल जाये।
चैतन्य में से धुँआ निकल जाने को ही तो तत्त्ववेत्ता निर्जरा कहते हैं I समझना यह है कि अस्ति और नास्ति सहोदर भाई ही नहीं हैं, एक सिक्के के दो पहलू भी हैं - एक के बिना दूसरे की सत्ता असंभव है । अन्धकार न होता तो प्रकाश का कोई अर्थ ही न होता - "प्रकाश" यह शब्द ही न होता । "अन्धकार नहीं है" - यह बताने के लिए ही तो हम प्रकाश शब्द का प्रयोग करते हैं। अंधकार ही न होता तो प्रकाश शब्द के द्वारा हम किसका अभाव द्योतित करते ?
विघ्न है तो पुरुषार्थ है, पुरुषार्थ है तो जीवन की सार्थकता है । फिर विघ्नों का आभार क्यों न माना जाये ? लेकिन पुरुषार्थ का अर्थ विघ्नों से लड़ना नहीं है, पुरुषार्थ का अर्थ है अपनी कमजोरियों से लड़ना
महाप्रज्ञ - दर्शन
वक्र बनो तो और अडूंगा, शक्र बनो तो और लडूंगा चक्र बनो तो रेखा को ही जीवन का आधार मान लूँ प्यार करो तो हार मान लूँ
ज्यामिति की सभी आकृतियों में चक्र ही एक परिपूर्ण आकृति है - अखण्ड मण्डलाकार | वर्तुल जिन दो अर्धवृत्तों के मेल से बनता है, वे दोनों अर्धवृत्त सर्वथा एक-दूसरे के समान होते हैं। जीवन के अर्धवृत्त हैं - सुख-दुःख, जय-पराजय, लाभ-हानि, मान-अपमान । जिसने इन दो अर्धवृत्तों को समान बना लिया वह अखण्ड मण्डल बन गया, शेष सभी वक्र होकर रह गये । रेखा का एक ही आयाम है - लम्बाई । उसकी न ऊँचाई है, न चौड़ाई। वर्तमान एक रेखा है, वही जीवन का आधार है। भूत और भविष्य की स्मृतियों और कल्पनाओं में खोया रहने वाला काल - कवलित ही होता रहा, कालजयी केवल वर्तमान-जीवी बन पाया है। इसलिए आचार्य महाप्रज्ञ अतीत में नहीं उलझे, बल्कि उन्होंने तो अतीत को सदा वर्तमान के द्वारा नकारे जाते हुए ही देखा है
वर्तमान हर अतीत को निरर्थक साबित कर देता है।
चार शताब्दी पूर्व
इन किलों का कितना बड़ा अर्थ था किंतु इस हवाई जहाज के जमाने में
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