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काव्यालोचन
२२६ इच्छा-सम्राट् किया करते हैं, प्रेमी नहीं। प्रेमी सदा छोटा रहना चाहता है-तृणादपि सुनीचेन जनेन सेव्यः सदा हरिः। जीतने की इच्छा दूसरे को मिटाने की इच्छा है, दूसरे को नीचा दिखाने की इच्छा है-प्रेमी जिससे प्रेम करता है उसे मिटाने की या नीचा दिखाने की इच्छा कैसे पैदा कर सकता है? फिर जिसे प्रेम मिला उसे और चाहिए भी क्या जिसके लिए आक्रमण करे या जीतने की इच्छा करे। प्रेम की गली में कोई जा सकता है तो अपना अहं खोकर ही जा सकता है। कबीर ने बाजार में लकुटि लेकर यही तो हांक लगायी थी
प्रेम गली अति सांकरीता में दो न समाई।
मैं हूं तो हरि है नहीं, हरि है तो मैं नाहीं ॥ आचार्य महाप्रज्ञ इस अद्वैत तक पहंचने के मार्ग भी सुझाते हैं। सारे द्वंद्व विषमता में हैं, समता द्वंद्वातीत है। हार-जीत भी एक द्वंद्व है, हानि-लाभ, मान-अपमान-ये सब द्वंद्व हैं। जहां तक द्वंद्व है वहां तक जगत् है, जहां द्वन्द्वातीतता है वहां भगवत्ता है। हार मानने को आचार्य महाप्रज्ञ तैयार हैं, लेकिन हार और जीत को परस्पर विरोधी मानने को वे तैयार नहीं । अमृत और विष दोनों भाई-भाई हैं, विरोधी नहींविषम मार्ग जब मन चुनते हैं, हार-जीत वह ही बनते हैं गरल-सुधा दोनों भाई हैं, विघ्नों को आभार मान लूं
प्यार करो तो हार मान लूं विघ्नों को आभार मानने का आधार है-इतिहास। पृष्ठ पढ़ इतिहास के, इतिहास-स्रष्टा जो बने हैं प्राण से खेले सदा वे और शोणित से सने हैं।
सुकरात के जहर का प्याला और ईसा मसीह की सली से लेकर मीरां के जहर के प्याले और मोहनदास करमचंद गांधी की छाती पर लगी गोलियों तक के इतिहास के पन्ने हमारे सामने बिखरे पड़े हैं। महावीर की कथा निराली है-वे चाहे जब जान-बूझकर जान को जोखिम में डालते रहे। एक अनहोना अभिग्रह कर लिया, हाथ-पैरों में बेड़ियां हों, सिर मुंडा हो और आँखों में आँसू हो तो ऐसी स्त्री के हाथों से आहार लेंगे नहीं तो आहार ही ग्रहण नहीं करेंगे।
आपाततः कोई अर्थ समझ में नहीं आता ऐसे दुराग्रहों का । पर अर्थ हैअग्नि जलती है पर इसलिए नहीं कि
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