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महाप्रज्ञ उवाच
२२१ बहुत बार ऐसा होता है कि सुबह त्याग लेते हैं, संकल्प लेते हैं और शाम होते-होते टूट जाता है। बड़ी कठिनाई है। परिस्थिति आती है और त्याग टूट जाता है, क्योंकि वृत्तियां तो भीतर हैं।
आदत काम कर रही है अवचेतन मन के माध्यम से और हम संकल्प कर रहे हैं, चेतन मन के माध्यम से। जब तक हमारी बात अवचेतन मन तक नहीं पहुंच जाएगी, तब तक चेतन की जो अर्जित आदत है वह नहीं बदलेगी। इस समस्या से निपटने के लिए अनुप्रेक्षा यानी भावना का सहारा लेना बहुत जरूरी है।
__ हम आज के इस एलोपैथिक और मेडिकल साइंस के जमाने में जी रहे हैं। इन सारी बातों को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि सारी कठिनाइयां मानसिक तनाव से पैदा होती है। बीमारियां, जटिल आदतें और चिंतन की विकृतियां इन सबके लिए जिम्मेवार होता है-मानसिक तनाव। शिथिलीकरण या कायोत्सर्ग एक प्रक्रिया है तनाव विसर्जन की।
कोरी प्रवृत्ति पागलपन की ओर ले जाती है। कोरा काम आदमी को निकम्मा बना देता है। अनेक लोग प्रवृत्ति में बहुत विश्वास करते हैं। वे प्रवृत्ति करते-करते अपनी शक्ति को इतना खर्च कर डालते हैं कि अति प्रवृत्ति उनके लिए वरदान नहीं, अभिशाप बन जाती है। कोरी निवृत्ति भी निकम्मापन लाती है। जब शरीर है तो निवृत्ति से काम नहीं चल सकता। सक्रियता और निष्क्रियता, चिंतन और अचिंतन, विचार और निर्विचार, विकल्प और निर्विकल्प, स्मृति और विस्मृति, भाषा और अभाषा-इन सबका संतुलन अपेक्षित है।
आदमी का ध्यान निमित्तों पर अटक गया। उसने उपादान को भुला दिया। आज सबसे बड़ी समस्या है उपादान और निमित्त की। आज का आदमी निमित्तों को बदल कर सब कुछ करना चाहता है। वह उपादान की ओर ध्यान ही नहीं देता।
एक पतला-दुबला आदमी हट्टे-कट्टे आदमी से भिड़कर उसे नीचे गिरा देता है। गिराने वाली शक्ति शरीर की नहीं होती, वह होती है प्राण की। आज की शिक्षा पद्धति में प्राण की शक्ति का कोई प्रशिक्षण नहीं है। उस पर विचार भी नहीं किया गया है।
आज की पूरी पश्चिमी सभ्यता में जो एक मानसिक विक्षेप आया है, उसका सबसे बड़ा कारण है यौन की स्वच्छन्दता। वहां काम-सेवन पर न सामाजिक प्रतिबन्ध है और न आंतरिक प्रतिबन्ध है। उसका परिणाम यह हुआ है कि वहां पागलपन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
एक बहुत बड़ी शक्ति है-सहिष्णुता । सहिष्णुता का विकास तब होता है जब सहारे की बात नहीं सोची जाती। जो कष्ट सहते हैं, कठिनाइयां झेलते हैं वे सहिष्णुता का विकास कर लेते हैं।
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