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________________ २२० महाप्रज्ञ-दर्शन हमारे जीवन में चेतना और शक्ति-ये दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। दोनों को दो ध्रुव सम्भाले हुए हैं। एक ध्रुव है-मस्तिष्क या ज्ञान केन्द्र और दूसरा ध्रुव है-शक्ति केन्द्र। इनका संतुलित विकास होता है तो हमारी प्रवृत्ति का संचालन बहुत सहजता और सरलता से होता है। वस्तुतः वाणी, मन और नाड़ी-संस्थान-इन सब में प्राण का संचार करने का माध्यम बनता है-श्वास । श्वास एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो बाह्य जगत् में भी रहता है और अन्तर्जगत् में भी रहता है। बाहर आता है और फिर भीतर जाता है। बाह्य और अन्तर्-दोनों के बीच सेतु बना हुआ है हमारा श्वास। श्वास की प्रक्रिया बहुत छोटी लगती है, किंतु बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। श्वास के प्रयोग हमारे प्राणवायु को सम्पूर्ण करते हैं। ऑक्सीजन जाता है श्वास के माध्यम से। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड निकलता है श्वास के माध्यम से। श्वास भर जाता है तो प्राण तत्त्व लेकर जाता है और बाहर आता है तो दूषित तत्त्व को लेकर आता है। श्वास हमारी चेतना के जागरण में भी बड़ा सहयोगी बनता है। चेतना के सूक्ष्म स्पंदनों को सक्रिय बनाने में श्वास का बड़ा योग होता है। वाणी हमारी प्रवृत्ति का और सामाजिकता का मुख्य माध्यम है। यदि वाणी नहीं होती तो समाज नहीं होता । पशुओं का समाज नहीं है। वह इसलिए नहीं है कि उनके पास भाषा नहीं है। वाणी के अभाव में समाज नहीं बनता। मन स्मृति, कल्पना और चिन्तन का माध्यम बनता है। हमारी जीवन की यात्रा इन तीनों के आधार पर चलती है। स्मृति के अभाव में यात्रा दुर्भर हो जाती है। कल्पना के बिना विकास की कोई बात नहीं सोची जा सकती। चिंतन के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता। इन तीनों का संशक्त माध्यम है, हमारा मन। हमारी शारीरिक रचना के आधार पर यदि श्वास हो तो मैं समझता हूं कि एक मिनट में ७-८ से ज्यादा श्वास नहीं होने चाहिए। किंतु पन्द्रह-सोलह श्वास आते हैं। क्योंकि हमारी शारीरिक संरचना के साथ-साथ हमारी मानसिक वृत्तियां भी काम करती हैं और उनसे प्रभावित होकर श्वास छोटा बन जाता है। देखना सीखें, ध्वनि तरंग पैदा करना सीखें, शिथिलीकरण का अभ्यास करें, शिथिल होना सीखें और जागरूकता का अभ्यास करें। भारतीय दर्शन देखने का दर्शन है। आज दर्शन का अर्थ बदल गया। कॉलेजों में, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो दर्शन पढ़ाया जा रहा है वह अनुमान प्रधान और तर्कप्रधान दर्शन है, किंतु जो प्राचीन दर्शन रहा है वह है देखना, प्रत्यक्षीकरण, साक्षात्कार। अनुमान नहीं, तर्क नहीं, हेतु नहीं, व्याप्ति नहीं, किंतु साक्षात्कार, प्रत्यक्षीकरण। यह दर्शन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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