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महाप्रज्ञ उवाच
. २१६ पहला तथ्य है-प्राणधारा का संतुलन ।
मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए प्राणधारा का विकास और संतुलन आवश्यक है। प्राण के दो प्रवाह हैं-इड़ा और पिंगला। ये प्राचीन योगशास्त्रीय नाम हैं। आज के शरीर शास्त्रीय भाषा में एक का नाम है-पेरा-सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम और दूसरे का नाम है-सिंपेथेटिक नर्वस् सिस्टम। प्राण के इन दोनों प्रवाहों में जब तक संतुलन नहीं होता तब तक हम जिस प्रकार के विद्यार्थी की परिकल्पना करते हैं, वह परिकल्पना सार्थक नहीं
होगी।
मस्तिष्क का बायां हिस्सा बौद्धिक विकास के लिए उत्तरदायी है, अध्यात्म, अन्तश्चेतना का विकास, आन्तरिक वृत्तियों का विकास यह सब दाएं मस्तिष्क का काम है।
__ आज असंतुलन हो गया । बायां हिस्सा अधिक सक्रिय हो गया और दायां हिस्सा सोया का सोया रह गया। ऐसा हो गया कि आदमी का एक हाथ आकाश को छूने लग गया और एक हाथ बौना ही रह गया।
विज्ञान भी इसी निष्कर्ष तक पहुंचा है कि हमारे मस्तिष्क में अनंत क्षमताएं हैं परंतु आदमी उन क्षमताओं का पांच-सात प्रतिशत ही उपयोग कर पाता है। जो दस प्रतिशत उपयोग करने लग जाता है, वह महान् व्यक्ति बन जाता है।
___ रोटी आवश्यक है, पर इस तथ्य को विस्मृत नहीं करना चाहिए कि रोटी विहीन आस्था से काम नहीं चलता तो आस्थाहीन रोटी भी आदमी को कभी-कभी खाने लग जाती है, भयंकर बन जाती है। दोनों का संतुलन हो। रोटी भी हो और आस्था भी हो।
उत्थान के तीन कारण हैं-सम्यग् दृष्टिकोण, सम्यग् व्यवहार और सम्यग् भाव। पतन के तीन कारण हैं-मिथ्यादृष्टिकोण, मिथ्याव्यवहार और मिथ्याभाव। ये उत्थान-पतन के मूलभूत कारण हैं। अवान्तर कारण सैकड़ों-हजारों हो सकते हैं, पर वे मूल के उपजीवी हैं।
जब तक हाइपोथेलेमस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करेंगे, तब तक ग्रंथियों से प्रवित होने वाले स्राव का परिष्कार नहीं होगा और जब तक यह ग्रंथि-स्राव परिष्कृत नहीं होगा तब तक दृष्टिकोण, व्यवहार और भाव का परिष्कार नहीं होगा।
___ परिष्कार की प्रक्रिया के बिना शिक्षा प्रणाली को संतुलित नहीं कहा जा. सकता। हमारा यह आग्रह नहीं है कि यह परिष्कार प्रेक्षाध्यान की प्रणाली से ही आ सकता है। अनेक प्रणालियां हो सकती हैं, पर परिष्कार का विकल्प हमारे पास होना चाहिए।
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