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महाप्रज्ञ उवाच
पतंजलि से पूछा गया-चित्त का निरोध कैसे होता है ? उन्होंने कहा-चित्त-निरोध के दो उपाय हैं-अभ्यास और वैराग्य । अर्जुन ने कृष्ण से पूछा-मन का निरोध कैसे हो सकता है ?
कृष्ण ने कहा-पार्थ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मनोनिग्रह साधा जा सकता है।
आज अभ्यासात्मक शिक्षा छूट गई। करने का कौशल शिक्षा से प्राप्त होता है। होने या बदलने का पराक्रम भी शिक्षा के द्वारा प्राप्त होता है और जानने का माध्यम भी शिक्षा से ही प्राप्त होता है।
शिक्षा के चार आयाम हैं-शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास। इन चारों में व्यक्तित्व-निर्माण से सम्बन्धित सभी विकास समाविष्ट हैं। आज शिक्षा की जो निष्पत्तियां प्रत्यक्ष हो रही हैं, उन्हें देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि आज की शिक्षा कोई फल नहीं दे रही है। जिस विषय की आज शिक्षा दी जा रही है, उसकी निष्पत्तियां आ रही हैं। अच्छे डॉक्टर, अच्छे वकील, अच्छे इंजीनियर, अच्छे शिक्षक अपने-अपने विषय में निष्णात होकर समाज में आ रहे हैं। इस स्थिति में हम कैसे माने या कहें कि शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है, त्रुटिपूर्ण है ? ।
हमारी शिक्षा-प्रणाली संतुलित नहीं है। संतुलित शिक्षा-प्रणाली वह होती है जिसमें व्यक्तित्व के चारों आयाम संतुलित रूप से विकसित होते हैं। शरीर का विकास भी अपेक्षित है, मन का विकास भी अपेक्षित है तथा बुद्धि और भावना का विकास भी अपेक्षित है। आज की शिक्षा में इन चार आयामों में से दो आयामों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। वे दो आयाम हैं-शारीरिक विकास का आयाम और बौद्धिक विकास का आयाम । शेष दो आयाम उपेक्षित पड़े हैं। आज शारीरिक विकास बहुत हुआ है और बौद्धिक विकास भी प्रतिदिन बढ़ रहा है किंतु मानसिक विकास और भावनात्मक विकास-ये दोनों अविकसित रह रहे हैं।
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