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महाप्रज्ञ-दर्शन चक्रों की सारी कल्पना का मूल उद्देश्य है-शरीर को चुम्बकीय क्षेत्र बना लेना। सहिष्णुता और समभाव वृद्धि के प्रयोग, उपवास, आसन, प्राणायाम, आतापना, सर्दी-गर्मी को सहने का अभ्यास इन सारी प्रक्रियाओं से शरीर के परमाणु चुम्बकीय क्षेत्र में बदल जाते हैं और वह क्षेत्र इतना पारदर्शी बन जाता है कि उस क्षेत्र से भीतर की चेतना बाहर झांक सकती है।
- बाह्य जगत् और अन्तर जगत् में संतुलन स्थापित करना आवश्यक है। बाह्य जगत् और अन्तर जगत्-दोनों वास्तविक हैं। दोनों को स्वीकार करना है। व्यवहार को भी स्वीकार करना है और निश्चय को भी स्वीकार करना है। दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना, यह ध्यान है, यह जीवन का विज्ञान है और यह शिक्षा प्रणाली का अनिवार्य अंग होना चाहिए।
मन की सत्ता बहुत बड़ी है। बुद्धि का साम्राज्य बहुत विशाल है। इन्द्रियों की शक्ति बहुत विपुल है। भाषा और प्राण का बल भी अन्यून है। ये सब हमारे सामने हैं तो क्या शिक्षा मात्र इतनी ही है कि जिससे शरीर को पोषण मिले और उसकी आवश्यकताएं पूरी हो जायें ?
शिक्षा के माध्यम से मानसिक और बौद्धिक विकास होता है पर अनुशासन का विकास नहीं होता। क्यों नहीं होता, इस पर भी ध्यान दें। अनुशासन आता है बुद्धि से परे और शिक्षा रह जाती है बुद्धि की सीमा में ही।
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