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________________ २१६ महाप्रज्ञ - दर्शन इन चार तंत्रों के सधने का अर्थ है कि यह चारों हमारे मार्ग में सहायक बनें। शिक्षा में इन चारों को शिक्षित करने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। संक्षेप में इनके शिक्षित करने की चार प्रक्रियाएं हैं। प्रथम प्रक्रिया है-तटस्थ भाव से देखना, रागद्वेष रहित होकर सारे पूर्वाग्रहों को छोड़कर पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही देखा जाए। हमें आश्चर्य होगा कि जब हम केवल देखते हैं तो अनेक ऐसे तत्त्व हमारे सम्मुख आते हैं जो विचारों में उलझे रहने के कारण हमें दिखते ही नहीं हैं। शरीर में इतने स्पंदन हो रहे हैं कि हमें उनकी कुछ खबर ही नहीं । प्रेक्षा में वे दिखने लगते हैं। दूसरा उपाय है अनुप्रेक्षा-जो कुछ हमने प्रेक्षा के द्वारा देखा उसके संबंध में अनुचिंतन आवश्यक है। हमें अपने अन्दर कमियां दिखती हैं । निरन्तर यह चिंतन करें कि हमारी वे कमियां दूर हो रही है। विचार की अपनी शक्ति है। हमारे इस चिंतन से वे कमियां सचमुच दूर हो जाती हैं। तीसरा उपाय है शिथिलीकरण । जब हमारी पकड़ शरीर पर मजबूत होती है तो तनाव पैदा होता है। इस पकड़ को छोड़ना कायोत्सर्ग अथवा शिथिलीकरण है। चौथा उपाय भावक्रिया है । हम हर समय प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा या शिथिलीकरण नहीं कर सकते किंतु जीवन के दूसरे जो भी कार्य करें उन्हें जागरूकतापूर्वक करें तो हमारे कर्मों में स्वतः ही परिष्कार आ जाएगा । पराविद्या की यह विशेषता है कि वह केवल सैद्धान्तिक ही नहीं है अपितु प्रायोगिक भी है। प्रवृत्ति और निवृत्ति का जोड़ा है। हम श्वास लेते हैं तो निकालते भी हैं । आहार करते हैं तो नीहार भी करते हैं। हम कभी यह नहीं सोचते कि विचार करते हैं तो निर्विचारता में भी जाएं। बोलते हैं तो मौन में भी जाएं। विचार से विचार नहीं उत्पन्न होता है । विचार उत्पन्न होता है निर्विचारता से । हमारा वास्तविक अस्तित्व निर्विचारता और मौन के स्तर पर है। यदि हम बदलना चाहते हैं तो हमें वास्तविक स्तर पर जाकर बदलना होगा। रात दिन चलने वाले संकल्प विकल्पों से हम स्वयं ही परेशान हो जाते हैं। कभी-कभी तो यह स्थिति विक्षिप्तता तक ले जाती है। बौद्धिक विकास के लिए विचार महत्त्वपूर्ण 1 हैं । हमारी शिक्षा बौद्धिक विकास को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देती है, इसलिए निर्विचारता का भाव पिछड़ गया है। हम नहीं जान रहे हैं कि विचार हमें केवल सत्य की छाया पकड़ा सकता है, सत्य को तो निर्विचारता ही पकड़ सकती है। I मूल बात है संयम और अनुशासन की । असंयम का प्रश्न प्राणशक्ति के अपव्यय का प्रश्न है। जहां स्वच्छन्द यौनाचार को अनुमति मिली है वहां विक्षिप्तता बढ़ी है । चित्त का असंतुलन प्राणशक्ति का अपव्यय करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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