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महाप्रज्ञ-दर्शन अपराविद्या के अन्तर्गत ज्ञान विज्ञान की वे सभी शाखाएं आती हैं जो आधुनिक शिक्षा के अन्तर्गत पढ़ाई जा रही है। उन विद्याओं के पढ़ने से व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होता है। उपनिषद् में प्रश्न उठाया गया कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अपरा विद्याओं से हो सकती है तो पराविद्या की क्या आवश्यकता है। उत्तर यह दिया गया कि अपराविद्या के अध्ययन कर लेने पर भी मनुष्य अपने स्वरूप को नहीं जान पाता और न दुख से मुक्त हो पाता है। यह तभी संभव है जब वह अपराविद्या के साथ पराविद्या का भी अध्ययन करे।
प्रश्न होता है कि पराविद्या के अन्तर्गत वे कौन-कौन से उपाय बताये गए हैं जिनके द्वारा मनुष्य स्वयं को जान सके और दुख से छुटकारा पा सके अथवा आधुनिक शब्दावली का प्रयोग करे तो कह सकते हैं, कि मनोविकारों से और भावनात्मक असंतुलन से बचने के क्या उपाय हैं।
संतुलन का पहला उपाय है मस्तिष्क के बाएं और दायें भाग में संतुलन स्थापित करना । बायां भाग तर्क प्रवर है और दायां भाग प्रज्ञा का उन्नायक है। तर्क से विज्ञान का विकास होता है। प्रज्ञा से अध्यात्म विकसित होता है। इन दोनों के बीच संतुलन रहना चाहिए। इस संतुलन का उपाय है कि हम प्राणधारा को संतुलित करें। प्राण के दो प्रवाह हैं- इड़ा और पिंगला। इनके समकक्ष आधुनिक युग में पेरासिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम तथा सिंपेथेटिक नर्वस् सिस्टम है। प्राणायाम द्वारा प्राणधारा का संतुलन बनाया जा सकता है। यह पराविद्या का प्रथम पाठ है। योगासन भी प्राणधारा को ही संतुलित करते हैं। प्राणधारा के संतुलन से प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच संतुलन स्थापित होता है। यह संतुलन न तो व्यक्ति को इतना सक्रिय होने देता है कि उसकी सक्रियता तोड़फोड़ की निषेधात्मक प्रवृत्तियों में बदल जाए और न ही इतना निष्क्रिय होने देता है कि व्यक्ति निकम्मा ही हो जाए। आसन और प्राणायाम की उपयोगिता आज वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुकी है किंतु हम उसका समावेश अपनी शिक्षा की मुख्य धारा में नहीं कर पाए हैं।
पराविद्या का दूसरा आयाम है-श्रद्धा। किसी दूसरे में श्रद्धा का विषय विवादास्पद हो सकता है क्योंकि सबके इष्ट अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई इष्ट है ही नहीं। किंतु हमारा श्रद्धा से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति अपने पर आस्था रखे। आज विज्ञान ने हमारे सामने यह रहस्य खोल दिया है कि हमारे शरीर में और मस्तिष्क में बहुत अधिक क्षमता है। हम उस क्षमता का बहुत थोड़ा भाग ही उपयोग में लेते हैं। आत्मा की क्षमता तो
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