SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१३ शिक्षा का नया आयाम विकास है। हम जो नही कर पाये हैं उसे कर सकें यह क्रियात्मक विकास है और हम जैसा बनना चाहते हैं वैसे अभी नहीं हैं किंतु भविष्य में वैसे बन जाएं। यह भावनात्मक विकास है। शरीर को पदार्थ चाहिए। मन को इच्छाओं की पूर्ति चाहिए। बुद्धि कुछ जानना चाहती है और हमारी भावना यह रहती है कि हम पहले से कुछ ज्यादा अच्छे बन जायें। हमारे व्यक्तित्व के घटक और विकास की दिशाओं पर विचार करें तो यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाएगी कि हमारी शिक्षा का क्या रूप होना चाहिए। आज इस बात पर बहुत बल दिया जा रहा है कि शिक्षा व्यवसाय मूलक होनी चाहिए। व्यवसाय मूलक शिक्षा आजीविका में सहायक होती है और आजीविका से उपार्जित धन हमारी शारीरिक आवश्यकता को पूरी करता है। वर्तमान शताब्दी में ज्ञान का विस्फोट हो गया है। शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन पाठ्यक्रमों में इस प्रकार के परिवर्तन किए जा रहे हैं कि उसमें नवीनतम ज्ञान का समावेश हो सके। इस प्रकार शारीरिक विकास और बौद्धिक विकास के लिए हमारी शिक्षा निरन्तर प्रयत्नशील है। - इसके बावजूद हम यह नहीं कह सकते कि शिक्षा हमारा मानसिक और भावनात्मक विकास भी कर रही है। ऊंची से ऊंची शिक्षा पाने वालों में मानसिक विक्षेप और भावनात्मक असंतुलन के प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हो रहे हैं। उच्चतम शिक्षा पाकर अत्यन्त उच्च पद पर प्रतिष्ठित भी अनेक व्यक्ति मादक द्रव्यों का प्रयोग किए बिना सोने के लिए शैय्या पर नहीं जाते। ऐसा नहीं है वे मादक द्रव्यों के दुष्प्रभावों से परिचित न हों बल्कि उनमें से अनेक तो डाक्टर होने के नाते मादक द्रव्यों के दुष्प्रभावों से सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक परिचित हैं तथापि वे उस व्यसन को छोड़ नहीं सकते। इसे उनके ज्ञान की कमी न मानकर मन की कमजोरी ही मानना होगा। भावना के क्षेत्र में तो शिक्षित व्यक्तियों का व्यवहार भी अत्यन्त बचकाना जैसा रहता है। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए समाजहित तथा राष्ट्रहित की उपेक्षा तो हम करते ही हैं अपने परिवार में भी अपनों के साथ ही हमारा व्यवहार सबके लिए दुखदायी हो जाता है। हम स्वयं भी ऐसे व्यवहार के लिए मन ही मन पश्चाताप भी करते हैं किंतु अवसर आने पर फिर चूक जाते हैं। स्पष्ट है कि हमारी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है। . ऊपर जो चित्र हमने दिया है वह आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति का है। प्रश्न यह है कि इस शिक्षा प्रणाली से पहले भी क्या कोई प्रणाली थी। हम इतिहास में जाएं जो उपनिषद् कहते हैं कि विद्याएं दो प्रकार की हैं और उन दोनों ही प्रकार की विद्याओं को जानना चाहिए- पराविद्या और अपराविद्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy