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________________ २१२ महाप्रज्ञ-दर्शन जीवन को भी समृद्ध बनाने में सहायता की। जहां कहीं विज्ञान ने केवल अस्तित्व की चिंता की और जीवन की उपेक्षा की वहां प्रबुद्ध विचारकों ने- जिनमें स्वयं वैज्ञानिक भी शामिल हैं - उसके विरुद्ध आवाज उठाई। विचारकों ने और वैज्ञानिकों ने यह भी अनुभव किया कि एक सीमा के बाद विज्ञान पर्यावरण प्रदूषण जैसे खतरों के द्वारा अस्तित्व को भी संकट में डाल देता है । विज्ञान हमें पद्धति देता है । यह पद्धति विचार करने में भी सहायक सिद्ध होती है। वैज्ञानिक विचार पद्धति की एक सीमा अवश्य है क्योंकि कुछ सत्य तर्कातीत होते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि तर्क का कोई महत्त्व ही नहीं है। धर्म और दर्शन हमें करुणा प्रदान करता है तो विज्ञान तथ्यों के विश्लेषण द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण रखने की शक्ति प्रदान करता है । धर्म दर्शन की करुणा और विज्ञान की शक्ति के मिलने पर एक नृसिंहावतार का जन्म होता है । इस समन्वय को शिक्षा के अतिरिक्त किसी और माध्यम से नहीं साधा जा सकता। जब शिक्षा इस समन्वय को साध लेती है तो मनुष्य के विचार और व्यवहार में तर्क और प्रेम तथा विश्लेषण और संश्लेषण के बीच एक संतुलन पैदा होता है। उस संतुलन के साथ मनुष्य जीता तो बाहर है किंतु रहता अन्दर है । शिक्षा का उद्देश्य : चतुर्मुखी विकास हम चार वाक्यों पर विचार करें ० मैं मोटा / पतला हूं। ० मैं भोजन करना / नहीं करना चाहता हूं। ० मैं यह बात समझ / नहीं समझ रहा हूं। ० मैं दुखी / सुखी हूं। उपर्युक्त चारों वाक्यों में 'मैं' का प्रयोग है, किंतु वह प्रयोग चारों वाक्यों में भिन्न-भिन्न संदर्भों में किया गया है। पहले वाक्य में 'मैं' का अभिप्राय शरीर है । दूसरे वाक्य में 'मैं' का अभिप्राय मन है। तीसरे में बुद्धि और चौथे में भावना। इसका यह अर्थ होता है कि हम 'मैं' का प्रयोग इन चारों अर्थों में करते हैं ऐसा इसलिए होता है कि हमारे व्यक्तित्व के शरीर मन, बुद्धि और भावना ये चार घटक हैं । यदि शिक्षा का प्रयोजन हमारा विकास है तो शिक्षा को हमारे चारों ही प्रकार का विकास करना चाहिए - शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास । हमारे विकास की भी तीन दिशाएं हैं। हम जो नहीं जानते हैं उसे जान लें यह ज्ञान का विकास है। हमें जो नहीं मिला है वह मिल जाए, यह आर्थिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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