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महाप्रज्ञ-दर्शन दृष्टि से अभिन्न है। इन दोनों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है। उत्पाद और व्यय में परस्पर ऐसा ही बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है। इनमें एक दूसरे के बिना नहीं रह सकता। वे विरोधी हैं किंतु इन दोनों का सहअस्तित्व भी बना है यही विरोध में अविरोधी की स्थापना है जिसे देखने की दृष्टि हमें अनेकान्त
देता है। ७. साधना के क्षेत्र में देश-काल की समन्वित अवधारणा ने एक नयी दृष्टि दी है हम सबका देश और काल पृथक-पृथक है किंतु समन्वित देश-काल सबका एक है। यह समन्वित देश-काल “अब और यहीं" को एक मात्र सत्य मानता है जो कि व्यक्ति निरपेक्ष है। जब तक हम "अब और यहीं" अर्थात् वर्तमान में हैं तब तक हम वीतरागता की स्थिति में हैं जैसे ही हम भूत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में जाते हैं वैसे ही राग-द्वेष हमें आकर घेर लेते हैं। राग-द्वेष में हमारी दृष्टि रञ्जित हो जाती है। अतः हम सबका सत्य अलग-अलग हो जाता है किंतु वीतरागता की दृष्टि से हम सबका
सत्य एक ही रहता है। द्वन्द्वों की दुनिया
पदार्थ का नाम और रूप उस पदार्थ को दूसरे पदार्थ से भिन्न बनाता है। भेद का आधार है-विषमता। यह विषमता ही द्वैत का आधार है। अंधकार है इसलिए प्रकाश का नाम प्रकाश है। अंधकार न हो तो प्रकाश शब्द ही न बन पाये। प्रकाश और अंधकार को साथ-साथ रहना होता है। यदि अंधकार में प्रकाश का अंश न हो तो अधकार भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकेगा। प्रकाश में भी तरतमता रहती है। प्रकाश की यह तरतमता प्रकाश में रहने वाले अंधकार के अंश के कारण है। अंधकार जैसे-जैसे कम होता जायेगा प्रकाश वैसे-वैसे बढ़ता जायेगा।
___ यह द्वन्द्व सब स्तरों पर काम कर रहा है। व्यक्ति के स्तर पर प्राण और अपान के बीच द्वन्द्व है। व्यान इन दोनों में समन्वय स्थापित करता है। जब यह सामञ्जस्य टूट जाता है तो प्राण और अपान भी समाप्त हो जाते हैं और इनके समाप्त होने पर जीवन ही समाप्त हो जाता है। पाप-पुण्य
__ आचार के क्षेत्र में पाप और पुण्य का द्वन्द्व है। जब तक पुण्य है, तब तक पाप भी है। साधक को यदि बंधन मुक्त होना है, तो उसे शुभ-अशुभ दोनों से परे जाना होगा।
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