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सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन
१६५ ज्ञान-कर्म
दर्शन के और साधना के इतिहास में ज्ञान और कर्म का विरोध प्रसिद्ध है। प्रयत्न किया गया कि कर्म को छोड़ा जाये, क्योंकि वह बंधन का कारण है। किंतु इसमें सफलता नहीं मिल सकी। ज्ञान है तो कर्म भी होगा ही। इसलिए साधना में जागरूकता की बात आई, कर्म छोड़ने की बात नहीं। कर्म करें किंतु साक्षी भाव रखें। कर्म करें किंतु द्रष्टा बने रहें कि आप क्या कर रहे हैं-यही भावक्रिया है। भावक्रिया में ज्ञान और कर्म का समन्वय है। जहां समन्वय नहीं रह पाता वहां कर्म यान्त्रिक हो जाता है-यह बंधन का कारण है और यदि कोई कर्म को सर्वथा छोड़ देने का दुराग्रह कर बैठे तो उसका जीवन चलना ही संभव नहीं है। प्रवृत्ति-निवृत्ति
हम इष्ट को स्वीकार करें-यह प्रवृत्ति है। अनिष्ट को अस्वीकार करें-यह निवृत्ति है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों जीवनरथ के दो पहिए हैं। एक भी पहिया हट जाये तो रथ नहीं चल सकता। बिम्ब-प्रतिबिम्ब
Symetry का सिद्धांत अद्भुत है-यह जिन दो पदार्थों में रहती है-उनमें बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव रहता है। बिम्ब और प्रतिबिम्ब में बहुत समानता रहती है किंतु फिर भी वे एक दूसरे के विपरीत होते हैं। दर्पण में पड़ने वाले हमारे मुख का प्रतिबिम्ब हमारे बाह्य अंग को दाईं ओर तथा दाएं अंग को बांई ओर प्रदर्शित करता है। उत्पाद और व्यय में, जन्म और मृत्यु में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है। वे दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु हैं दोनों एक दूसरे के बिम्ब । जन्म और मृत्यु एक क्षण-विशेष में नहीं होते प्रत्युत प्रत्येक क्षण होते रहते हैं। शरीर शास्त्र की भाषा में एक सेकेण्ड में हमारे शरीर की ५ करोड़ कोशिकाएं नष्ट हो रही हैं और उतनी ही कोशिकाएं नई उत्पन्न हो रही हैं। इस प्रकार जन्म और मृत्यु साथ-साथ चल रहे हैं। दुःख-सुख
मुद्दे की बात यह है कि दुःख और सुख साथ-साथ चलते हैं। हमारा सारा पुरुषार्थ यह लक्ष्य लेकर चलता है कि सुख तो रहे किंतु दुःख न रहे हमने यह लक्ष्य ऐसा बना लिया है जिसकी प्राप्ति कभी संभव नहीं है। सुख रहेगा तो दुःख भी रहेगा ही। इस बात को समझकर लक्ष्य यह बनाया जाना चाहिए कि हम सुख और दुःख में व्याकुल न हों। दोनों को एक ही सत्य के दो रूप मानकर स्वीकार करें।
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