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सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन
१६३ किसी परिस्थिति में छोटी और किसी परिस्थिति में बड़ी हो जाती हम एक ऐसे तथ्य को जान पाये हैं जो अब तक अज्ञात था। विज्ञान के सापेक्षता के सिद्धान्त द्वारा हमें अपूर्वार्थ का बोध होता है, उस पर सिद्ध-साधन का
दोष नहीं लगाया जा सकता। ४. स्याद्वाद के अन्तर्गत जब हम यह कहते हैं कि “स्याद् घट है", "स्याद् घट
नहीं है", "स्याद् घट अवक्तव्य है", तो यह सब शब्दों का मायाजाल सा प्रतीत होता है। आईंस्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त के अनुसार स्याद्वाद की यह प्रणाली विज्ञान की उपलब्धियों को अभिव्यक्त करने में समर्थ एकमात्र प्रणाली है। उदाहरणतः खड़े हुए देवदत्त को किन्हीं दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ५ घण्टे ज्ञात हो रहा है और प्रकाश की गति जैसी तीव्र गति से चल रहे यज्ञदत्त को उन्हीं दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ३ घण्टे ज्ञात हो रहा है, तब इन दोनों समयों के बीच जो (५-३-२) घण्टे का समय है वह वास्तव में है या नहीं? उत्तर यही होगा कि देवदत्त की अपेक्षा वह समय है, तथा यज्ञदत्त की अपेक्षा वह समय नहीं है और यदि यह पूछा जाये कि वास्तव में वह समय है या नहीं तो यही उत्तर होगा कि यह बतलाना संभव नहीं है अर्थात् यह अवक्तव्य है। इन तीनों भागों के मेल (Permutation Combination) से सात भाग बन जायेंगे और सत्य को
कहने का वही सर्वोत्तम उपाय सिद्ध होगा। ५. हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आईंस्टीन ने सापेक्षता के
कुछ ऐसे नये आयाम उद्घाटित किये हैं जो प्राचीन जैन आचार्यों को भी ज्ञात नहीं थे किंतु इससे अनेकान्त का सिद्धान्त और अधिक पुष्ट हुआ है और उसके मूलभूत ढांचे को कोई क्षति नहीं पहुंची है, यद्यपि देश और काल संबंधी जैन परम्परा में प्रचलित मान्यताओं में संशोधन करना
आवश्यक हो गया है। दर्शन के क्षेत्र में ऐसे संशोधन पहले भी होते रहे हैं। ६. परापरमाणु के क्षेत्र में एक symetry के सिद्धान्त ने विरोध में अविरोध
देखने की दृष्टि दी। निम्न चार चित्रों को देखें
इस चित्र में एक वर्तुल को दो भागों में बांटा गया है:
अ. और ब. । यदि यह पूछा जाये कि “अ” और “ब” भिन्न है या अभिन्न तो कहना होगा कि क्षेत्र की दृष्टि से “अ” और “ब” भिन्न किंतु आकृति की
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