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________________ १८८ महाप्रज्ञ-दर्शन वस्तुतः गति को नापने के लिए हम समय और देश की दूरी को नापते हैं और यदि प्रकाश की गति हर स्थिति में एक ही रहती है जो कि हमारे तर्क के अनुसार नहीं रहनी चाहिए-तो इसका यह अर्थ होता है कि गति को मापने के दोनों साधन-समय और देश-एक जैसे नहीं रहते बल्कि बदल जाते हैं। समय और देश जो कि गति को मापने के साधन हैं गति के साथ बदलते हैं। परिणामतः प्रकाश की गति हर स्थिति में समान इसलिए रहती है कि उसके नापने के साधन-देश और काल-गति की तीव्रता के साथ बदल जाते हैं। अभिप्राय यह है कि प्रकाश की गति में जो अन्तर हमें दिखाई देना चाहिए था वह अन्तर तभी दिखाई देता जबकि प्रकाश की गति को नापने के दो पैमाने-देश और काल--हर स्थिति में एक जैसे ही रहते। किंतु आइंस्टीन का निष्कर्ष यह है कि देश को नापने वाली छड़ तीव्र गति के साथ बदलने लगती है-और इसलिए देश और काल के मानदण्ड के बदल जाने से गति की नाप भी बदल जाती है। इस संदर्भ में जिन दो बातों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं:१. पहली बात तो यह है कि देश और काल का छोटा बड़ा होना प्रकाश के लगभग जितनी तेज गति पर ही होता है। हमारे अनुभव में आने वाली सामान्य गति में वह पकड़ में नहीं आता। २. देश और काल का छोटा बड़ा होना उस व्यक्ति को नजर नहीं आयेगा जो देश को नापने वाले मानदण्ड और काल को नापने वाली घड़ी के साथ-साथ स्वयं भी चल रहा है। वह केवल उसी को नजर आयेगा जो केवल एक स्थान पर ही खड़ा है। इस आधार पर आईंस्टीन ने देश और काल के दो नामकरण किये-जब हम स्थिर होते हैं और देश और काल को नापने वाली हमारी छड़ और घड़ी भी स्थिर होती है तब जो लम्बाई और कालावधि हमें प्राप्त होती है वह ठीक (Proper) लम्बाई और कालावधि है, किंतु जब हम स्वयं स्थिर होते हैं और हमारी अपेक्षा देश-काल को नापने वाली छड़ और घड़ी बहुत तेजी से चल रही होती है तो उस छड़ की लम्बाई और काल का माप सापेक्ष होता है। १९६२ में उपर्युक्त स्थापना को वास्तविक प्रयोग करके जांचा गया। वायुयान में चार अत्यन्त सूक्ष्म समय देने वाली आणविक घड़ियां रखकर पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं में पृथ्वी के चारों ओर घुमाई गई और यह पाया गया कि पृथ्वी पर ही रखी घड़ियों का समय कुछ पीछे हो गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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