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सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन
१८६०००+१०००००=२८६००० मील प्रति सेकेण्ड होनी चाहिए। (यदि हम रेल में यात्रा कर रहे हैं और सामने से बराबर की समानान्तर पटरी पर दूसरी रेल हमारी रेल से विपरीत दिशा में जा रही हो तो स्पष्ट अनुभव में आता है कि बराबर वाली रेल की गति बहुत तेज प्रतीत होती है और वह रेल बहुत थोड़े से समय में हमारी रेल को पार कर जाती है क्योंकि हमारी रेल की गति और सामने से आने वाली रेल की गति मिलकर जो गति बनती है उस गति से हमारी रेल को पार किया जाता है। अनुभव में आने वाले इसी उदाहरण के आधार पर यह कल्पना की गयी है।) आश्चर्य की बात यह है कि प्रकाश के साथ ऐसा नहीं होता-भले हम खड़े रहें-अथवा प्रकाश स्रोत की ओर चले–प्रकाश की गति १८६००० मील
प्रति सेकेण्ड ही रहती है। ३. प्रकाश जिस ओर से आ रहा है हम भी उसी दिशा से १००००० मील प्रति
सेकेण्ड की गति से चलें तो प्रकाश की गति ८६,००० मील प्रति सेकेण्ड होनी चाहिए। (यदि हम एक रेल में एक गति से एक ओर चल रहे हैं और दूसरी रेल भी पास की सामान्तर पटरी पर उसी ओर जा रही हो और उसकी गति हमारी रेल की गति से अधिक तेज है तब भी वह रेल हमें धीमी गति से ही रेंगती हुई दिखायी देती है क्योंकि एक ही दूरी को वह भी पार कर रही है और हमारी रेल भी पार कर रही है-अतः उस रेल की गति कम होगी-उस रेल की गति से हमारी रेल की गति घटाने पर जो गति आती है उस गति से वह रेल हमारी रेल को पार करेगी। इसी आधार पर यह बात कही जा रही है।) किंतु ऐसा होता नहीं। इस स्थिति में भी प्रकाश की गति १८६००० मील प्रति सेकेण्ड ही रहती है।
- प्रकाश की गति के संबंध में उपर्युक्त तथ्य एक अबूझ पहेली बने हुए थे। उपर्युक्त तथ्य हमारी सामान्य समझ से इतने विपरीत हैं कि इन पर विश्वास नहीं होता और ये परीकथा के समान कपोल कल्पित प्रतीत होते हैं किंतु विज्ञान में कोई भी बात बिना प्रयोग के स्वीकृत नहीं होती। १८८७ में अमेरिका के दो वैज्ञानिक अल्बर्ट माइकल्सन और एडवर्ड मोर्ले ने एक प्रयोग किया जिसके आधार पर यह तथ्य सामने आये।
आईंस्टीन ने जब इस समस्या का सामना किया कि प्रकाश की गति उपर्युक्त प्रकार से सब दशाओं में समान कैसे रहती है तो उन्होंने यह निर्णय लिया कि देश और काल के संबंध में हमारी यह अवधारणा गलत है कि वह हर स्थिति में एक ही रहते हैं।
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