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________________ सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन .१८.३ वस्तुवादी है और बहुत्ववादी है। जड़ के क्षेत्र में पुद्गल के अनन्तानंत परमाणु हैं और वे एक-दूसरे से अलग-अलग हैं। इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में अनन्तानंत जीव भी एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् अपना अस्तित्व रखते हैं । जैन चिंतन के अनुसार एक का दूसरे से यह पृथक्त्व चार दृष्टियों से बनता है - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अर्थात् स्वचतुष्ट्य की अपेक्षा है किंतु पर चतुष्ट्य की अपेक्षा नहीं है। इसी को एक अपेक्षा से होना -"स्याद् अस्ति " - और दूसरी अपेक्षा से न होना - "स्यान् "नास्ति" कहा जाता है। इसी आधार पर एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ से पृथक् किया जाता है। सापेक्षता का एक दूसरा पक्ष यह है कि पदार्थ में अनन्त धर्म रहते हैं जिसमें जब हम किसी एक धर्म को बताते हैं तो शेष धर्मों को गौण कर देते हैं जिसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि शेष धर्म हैं ही नहीं, यह केवल हमारी भाषा की सीमा है कि हम युगपद सभी धर्मों को नहीं कह सकते, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन धर्मों का अस्तित्व भी नहीं है । जब हम यह कहते हैं कि यह वस्त्र काला है तो हमारे इस वक्तव्य की कुछ सीमाएं हैं। प्रथम सीमा तो यह है कि हम इस वाक्य के द्वारा केवल वस्त्र का रूप बता रहे हैं, किंतु हमें यह पता है कि वस्त्र का रस, गंध और स्पर्श भी है। दूसरी सीमा यह है कि जब हम उसे काला कह रहे हैं तो यह एक सापेक्ष वर्णन भी हो सकता है और यदि कोई दूसरा वस्त्र उससे इतना अधिक काला हो तो शायद उसके मुकाबले में हम इसे अकृष्ण ही कहना चाहें। एक तीसरी सीमा यह है कि वस्त्र के रूप में भी वस्तुतः तो सभी रंग हैं, किंतु जब हम इसे काला कहते हैं तो उसका अर्थ केवल इतना है कि दूसरे सब रंग काले रंग में दब गये हैं और होते हुए भी दिखाई नहीं दे रहे हैं । सापेक्षता का यह सिद्धान्त जैन प्रमाण मीमांसा की आत्मा है । सापेक्षता : बौद्ध और वेदान्ती दृष्टिकोण जैनेतर भारतीय दर्शनों में वस्तुवादी दर्शन तो थोड़े-थोड़े मतभेद सहित कहीं न कहीं अनेकान्तवाद को स्वीकार कर लेते हैं किंतु क्षणिकवादी बौद्ध तथा मायावादी वेदान्ती को अनेकान्त कदापि स्वीकार नहीं है। डॉ० सात्करि मुखर्जी ने इस विषय का ऊहापोह करते हुए कुछ निष्कर्ष दिए। उनका कहना है कि हमारे तर्क के कुछ पक्ष स्वतः सिद्ध होते हैं और कुछ अनुभव-सापेक्ष होते हैं। उदाहरणतः यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि गुलाबी रंग लाल रंग से हल्का है तो इस वाक्य की सत्यता जानने के लिए अनुभव में जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि गुलाबी का शब्दार्थ ही है - हल्का लाल । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि देवदत्त का वजन ७० किलोग्राम है तो इस वाक्य की सत्यता को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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