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महाप्रज्ञ-दर्शन जांचने के लिए हमें देवदत्त को तौलना होगा क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिस व्यक्ति का नाम देवदत्त हो उसका वजन अनिवार्य रूप से ७० किलो हो। अतः इस वाक्य की सत्यता स्वतःसिद्ध नहीं है-अपितु अनुभव गम्य है।
डॉ० मुखर्जी का कहना है कि यह सत्य स्वतः सिद्ध है कि “देवदत्त है" और "देवदत्त नहीं है"-- ये दोनों वाक्य एक साथ सत्य नहीं हो सकते क्योंकि 'होने' और 'नहीं होने' में परस्पर विरोध है-यह बात स्वतः सिद्ध है। जैन का कहना है कि हमें देवदत्त का स्वचतुष्ट्य से होना और परचतुष्ट्य से नहीं होना अनुभव से प्रत्यक्ष प्रतीति में आ रहा है। देवदत्त दिल्ली में है तो जयपुर में नहीं है। यदि उसकी अवस्था ६० वर्ष है और वह ३० वर्ष और जीवित रहने वाला है तो वह जन्म से मृत्यु पर्यन्त की ६० वर्ष की कालावधि में है; उस कालावधि से पहले या बाद में नहीं है। इस प्रकार देवदत्त का अस्तित्व देश और काल से सीमित है-शास्त्रीय भाषा में देशकालावच्छिन्न है। ऐसी स्थिति में उसके अस्तित्व को सर्वकालिक और सार्वदेशिक नहीं माना जा सकता। अतः हमें यही कहना होगा कि वह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है।
इसके विपरीत वेदान्ती और बौद्ध का कहना है कि यदि हमारे अनुभव का स्वतः सिद्ध सत्य के साथ टकराव हो जाये तो हमें अपने अनुभव की सत्यता की पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं हमारा अनुभव हमें धोखा तो नहीं दे रहा है। हमें प्रतिदिन अनुभव में आता है कि व्यक्ति बदलता है अर्थात अनित्य है और हम फिर भी बदलते हुए व्यक्ति को देखकर यह नहीं मान बैठते कि वह कोई दूसरा व्यक्ति है अपितु यही मानते हैं कि भले ही वह बदल गया है किंतु व्यक्ति वही है। इस प्रकार हमारे अनुभव में अनित्यता और नित्यता दोनों युगपद् आते हैं। किंतु तर्क का यह तकाजा है कि कोई पदार्थ या तो नित्य होना चाहिए या अनित्य । अतः हम अपने अनुभव में आने वाली नित्यता
और अनित्यता में से एक को भ्रम मान लेते हैं। अनित्यता को वेदान्त भ्रम मानता है, और नित्यता को बौद्ध काल्पनिक मानता है। - जैन का कहना है कि जो प्रत्यक्ष दिख रहा है उसे किसी स्वतःसिद्ध सत्य के नाम पर "भ्रम" या "कल्पना" मान बैठना ठीक नहीं है। हमें सोचना यह चाहिए कि जिसे हम स्वतःसिद्ध सत्य कह रहे हैं, वही तो भ्रम नहीं है। हमारे अनुभव में तो निरन्तर नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, भेद-अभेद जैसे युगल आ रहे हैं। अतः “दो विरोधी तत्व एक साथ नहीं रह सकते" यह कहना भी भ्रान्त है। डॉ० मुखर्जी का कहना है कि वेदान्ती और बौद्ध तथा जैन के बीच इस मतभेद का अन्तिम निर्णय लेना कठिन है। उनके अनुसार यह मामला व्यक्तिगत पसन्द का है कि हम अनुभव के आधार पर विरोधियों के सहअस्तित्व
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