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________________ १८२ महाप्रज्ञ-दर्शन सिद्धान्त के बाद अपने आप में देश और काल केवल एक छाया मात्र रह गये हैं। जो आज अस्तित्व में है-वह इन दोनों का समन्वित रूप है।' पदार्थ की लम्बाई और काल-दोनों सापेक्ष हैं __हमें देश और काल को अलग-अलग रूप में देखने का दीर्घकालिक अभ्यास है। इसलिए कहा जाता है कि देश और काल की सत्ता पृथक्-पृथक नहीं है, बल्कि समन्वित है-तो यह बात हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है। दूसरा आघात हमारे चिन्तन को उससे भी अधिक गहरा तब लगता है जब हमें यह कहा जाता है कोई छड़ कितनी लम्बी है अथवा किन्हीं दो घटनाओं के बीच में कितना समय बीता-यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस लम्बाई व समय को देखने वाला व्यक्ति कितनी तीव्र अथवा मंद गति से चल रहा है। हमारे मन में यह धारणा बद्धमूल है कि एक मीटर लम्बी छड़ हर परिस्थिति में एक मीटर ही लम्बी रहेगी और हमारी घड़ी की सुई के द्वारा दिखाया गया एक सेकेण्ड सदा एक सेकेण्ड ही रहेगा। किंतु सापेक्षता के सिद्धान्त ने हमें बताया कि हमारी यह धारणा सत्य नहीं है। देखना यह है कि इस निष्कर्ष पर वैज्ञानिक कैसे पहुंचे और देशकाल की अवधारणा के परिवर्तन से हमारे चिंतन में कितना बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन आने की संभावना बन गयी। ज्यों-ज्यों हम सापेक्षता के सिद्धान्त की गहराई में जायेंगे त्यों-त्यों यह बात स्पष्ट होती दिखायी देगी कि इस खोज में हमारे पूरे चिंतन को बदल देने की क्षमता अन्तर्निहित है। जैन-सम्मत सापेक्षता देश और काल पर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में विचार हुआ है, किंतु देश और काल संबंधी अवधारणा को सापेक्षता से जोड़कर जितना चिंतन जैन परम्परा में हुआ उतना शायद किसी दूसरी परम्परा में नहीं हुआ । जैन परम्परा - - - - - -- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - - - - -- - - -- -- - -- -- 9. From now on space by itself and time by itself are mere shadows and only a blend of the two exists in its own right -Hermann Minowski, Enclyclopedia Americana ___Vol. 23 page 337 2. The length of a metre rod and the duration of a second on a clock depend on the state of motion of the observer with respect to the instrument -Enclyclopedia Britanica. ___Vol. 8 page 96. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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