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महाप्रज्ञ-दर्शन
श्रेष्ठता की कसौटी कोरी बौद्धिकता नहीं है। सृष्टि का संतुलन बनाए रखने में जिनका योगदान है, उन सबकी अपनी श्रेष्ठता है। उन सारी श्रेष्ठताओं का योग ही यह जगत् है।
मार्क्स अहिंसा की दृष्टि से मुख्य चिन्तनधारा में नहीं थे। गांधी के पास अहिंसा के चिन्तन के अलावा कोई विकल्प नहीं था; किंतु दोनों का चिंतन बिंदु एक रहा और वह है आर्थिक समानता।
साम्यवाद ने प्रयोग किया, व्यक्तिगत स्वामित्व को समाप्त करने का और गांधी ने प्रयोग किया ट्रस्टी शिप का। किंतु लगता है-दोनों ही प्रयोग सफल नहीं हुए।
यदि हम विधायक रूप में आर्थिक समानता की बात करेंगे तो इस समस्या का समाधान नहीं होगा। हम निषेध के द्वारा इस समस्या को समाधान दे सकते हैं। कहीं-कहीं निषेध बहुत काम का होता है। सब जगह विधायक बात सफल नहीं होती। अहिंसा की व्याख्या विधायक रूप में करे तो बड़ी उलझनें हैं। अपरिग्रह की व्याख्या भी विधायक रूप में करे तो उलझनें कम नहीं हैं। हमें निषेध से चलना होगा। “किसी को मत मारो", एक गृहस्थ के लिए यह अहिंसा की सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। इच्छा का परिमाण करो, एक गृहस्थ के लिए यह अपरिग्रह की सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। गृहस्थ का अपरिग्रह मुनि का अपरिग्रह नहीं है। गृहस्थ के लिए है इच्छा परिमाण ।
इच्छा का परिमाण करो। इच्छा, परिग्रह और आरम्भ का एक चक्र है। इच्छा अल्प होगी तो परिग्रह और आरंभ अल्प होगा। जब तक इच्छा को नहीं पकड़ेंगे तब तक न व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमाकरण की बात सफल होगी, न ट्रस्टीशिप की बात सफल होगी। इन दोनों सूत्रों की सफलता तभी संभव है, जब उनकी पृष्ठभूमि में इच्छा के सीमाकरण का सूत्र हो। इच्छा को ज्यादा बढ़ाना अच्छा नहीं है, यह बात समझ में आने पर ही अपरिग्रह का सिद्धान्त समझ में आ सकता है। भीतर में इच्छा प्रबल है तो बाहर का उपदेश बहुत काम नहीं देगा।
इच्छा परिमाण और भोगोपभोग परिमाण-आर्थिक समस्या को समाधान दे सकते हैं। जब तक इच्छा और भोग का संयम नहीं होगा, तब तक न अहिंसक समाज संरचना का सपना साकार होगा और न ही आर्थिक समस्या सुलझ पायेगी। वर्ग संघर्ष की क्रान्तियां, हिंसक क्रांतियां इसलिए होती हैं कि व्यक्ति लोभी और स्वार्थी बन जाता है। केवल अपने भोगोपभोग की ही चिंता
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