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महाप्रज्ञ उवाच
शक्तिशाली लोग सत्ता को हथियाते रहे हैं। उसके लिए हिंसा का सहारा भी लिया जाता है। आज की चुनावी हिंसा उसी का नया संस्करण है।
राजतंत्र राज्य विस्तार के आधार पर चलता था और लोकतंत्र दल विस्तार के आधार पर चल रहा है।
लोकतंत्र का अर्थ है-शक्ति का विकेन्द्रीकरण । यदि तंत्र विकेन्द्रित नहीं है, लोकतंत्र राजतंत्र से भी अधिक खतरनाक बन जाता है। चुनाव द्वारा सरकार का परिवर्तन-यदि लोकतंत्र की सीमा इतनी ही हो तो मानना होगा-यह सत्ता पर अधिकार करने का एक नया विकल्प है। राजतंत्र में सत्ता पर अधिकार पैतृकता से होता था और लोकतंत्र में सत्ता पर अधिकार पैतृकता से नहीं होता। यह अन्तर स्पष्ट है। सत्ता पर आसीन होने के पश्चात् जो अन्तर होना चाहिए, वह परिलक्षित नहीं है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना वह संभव नहीं है।
बड़ी हिंसा भी सदा नहीं होती। छोटी-छोटी हिंसा सदा से चल रही है। इसका अर्थ है-आग बुझती नहीं उसकी चिनगारियां उछलती रहती है। वही आग कभी-कभी यहां ज्वाला बन महायुद्ध का रूप ले लेती है।
किसी पर शासन मत करो। यह अहिंसा का संदेश बहुत व्यापक और बहुत गुरुतर है। इतना गुरुतर भार हर आदमी शायद उठा न सके पर शासन विस्तार की भावना से बचा जाये तो विश्व शान्ति का मार्ग सीधा सरल हो जाता है।
मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है-इस धारणा के आधार पर उसके लिए सब कुछ करना क्षम्य मान लिया गया । वर्तमान चिकित्सा के क्षेत्र में लाखों-लाखों मूक पशु परीक्षण के लिए मारे जाते हैं। क्या इस हिंसा के आधार पर जीने वाला आदमी अहिंसा के विकास की बात सोच सकता है ?
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