________________
१७०
महाप्रज्ञ-दर्शन ३. यदि कोई व्यक्ति दुष्ट है तो उसके प्रति करुणा का भाव दुष्टता को
बढ़ावा देना है। ४. यदि कोई हमारा अधिकार छीनता हो तो अपने अधिकार की रक्षा के लिए
लड़ना ही धर्म है। ५. राष्ट्र रक्षा जैसे कर्तव्य पालन के लिए शस्त्र उठाना पुण्य का कार्य है। ६. शोषण का प्रतिकार हिंसा से ही संभव है। ७. जीवन सर्वत्र व्याप्त है। बिना हिंसा के एक क्षण भी नहीं जी सकता तो
अहिंसा का आग्रह क्यों करें ? ८. मनुष्य भोक्ता है, वनस्पति और पशु उसके भोग्य हैं। ६. जो प्रतिष्ठित एवं संपन्न हैं, वे अहिंसा का उपदेश यथास्थितिवाद को
बनाये रखने के लिए देते हैं, क्योंकि इनका स्वार्थ यथास्थिति में ही
निहित है। १०. जीव जीव का भोजन है, यह प्रकृति का नियम है, फिर अहिंसा कैसे
संभव है ?
उपर्युक्त धारणाओं पर क्रमशः विचार करना आवश्यक है। १. अहिंसा शब्द हिंसा के अभाव को बताता है, कर्म के अभाव को नहीं। हिंसा
का अर्थ राग-द्वेष पूर्ण कर्म है। समस्त पुरुषार्थ और कौशल का लक्ष्य यह है कि कर्म हो, किंतु राग-द्वेष न हो । यदि कर्म छोड़ने मात्र से अहिंसा होती तो मनुष्य की अपेक्षा वनस्पति और वनस्पति की अपेक्षा भी पाषाण को अधिक अहिंसक माना जाता। किंतु कोई भी परम्परा यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। निवृत्ति मार्ग के बड़े से बड़े समर्थकों ने अद्भुत कर्मठता का जीवन जीया है, चाहे वह महावीर हो, चाहे बुद्ध, चाहे शंकराचार्य। ये तीनों ही निवृत्ति पर बल देते हैं, किंतु इन तीनों ने मानव जाति को जो दिया वह उनकी कर्मठता में से प्रादुर्भूत हुआ। इन तीनों ने एक दीर्घस्थायी धर्मसंघ की स्थापना अपने जीवन में की, और उस धर्मसंघ का, जिसमें साधु और गृहस्थ दोनों हैं, रूप में नेतृत्व भी किया। इन तीनों ने गहन गंभीर चिंतन को जो अभिव्यक्ति दी, समय के प्रवाह में उसका बहुत बड़ा भाग लुप्त हो जाने के बावजूद वह हमें विपुल साहित्य के रूप में उपलब्ध है। यह सब कर्मठता के बिना संभव नहीं था।
निवृत्तिमार्गियों को छोड़ दें, तो प्रवृत्तिमार्गी श्रीकृष्ण या गांधी ने बिना शस्त्र के अन्याय के प्रतिकार के लिए पूरे जीवन संघर्ष किया। कृष्ण
और गांधी के बीच शस्त्र के उपयोग के संबंध में जो मतभेद आपाततः दिखाई देता है उसे दो दृष्टियों से सहज ही समझा जा सकता है। प्रथम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org