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अहिंसा
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तो कृष्ण के समय में धर्मयुद्ध की परम्परा थी । धर्मयुद्ध के अनेक नियम थे, जिनका मुख्य आशय यह था कि निरपराध की हिंसा न की जाये। मैदान में आमने-सामने की लड़ाई थी। गांधी के समय में जो युद्ध की शैली बन गई, उसमें एक प्रकार की कायरता और क्रूरता निहित थी, क्योंकि विमानों की लड़ाई में छिपकर और निरपराधों पर शस्त्र का प्रयोग होता था । ऐसे युद्ध की अनुमति कृष्ण भी नहीं दे सकते थे। उनके समय आमने-सामने की लड़ाई संभव थी जिसमें शौर्य का प्रदर्शन किया जाना संभव था । किंतु गांधी के समय आणविक शस्त्र ऐसा रूप धारण कर चुके थे, जिसमें शस्त्र प्रयोग का अर्थ था सर्वनाश । हिरोशिमा का उदाहरण हमारे सामने है । I शायद इसीलिए गांधी ने अपनी अहिंसक दृष्टि की कट्टरता के बावजूद गीता को नकारना तो दूर उसे अपनी माता बताया है ।
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२. यह सत्य है कि अहिंसा और अपरिग्रह की युति है। ये दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं । किंतु अपरिग्रह का अर्थ दरिद्रता नहीं है । अपरिग्रह का अर्थ है - आन्तरिक शक्तियों का ऐसा विकास कि मनुष्य को बाहरी उपकरणों की कम से कम आवश्यकता पड़े, इच्छा का ऐसा परिष्कार कि मनुष्य दूरदृष्टि सम्पन्न बन सके और दीर्घकालिक लाभ के लिए तात्कालिक आकर्षणों से मुक्त रह सके ।
अब तक अपरिग्रह को एक व्यक्तिगत गुण समझा जा रहा था किंतु पर्यावरण के प्रसंग में अपरिग्रह का महत्त्व सामूहिक रूप में प्रकट हो रहा है। आज अर्थशास्त्र को दो दृष्टियों से देखा जा रहा है - तात्कालिक विकास का अर्थशास्त्र और स्थायी विकास का अर्थशास्त्र । प्रकृति के सारे संसाधनों को शीघ्रातिशीघ्र उपयोग में लाकर आर्थिक विकास की गति बढ़ायी जा सकती है, किंतु हम प्रकृति से उतना ले तो लें और उतना दे न पायें कि प्रकृति-चक्र का संतुलन बना रह सके तो प्राकृतिक संसाधन समाप्त होते चले जायेंगे - और जितनी तीव्रगति से हम आर्थिक विकास करेंगे उतनी तीव्र गति से दरिद्र भी होते चले जायेंगे। यह दरिद्रता एक सीमा के बाद घातक भी सिद्ध हो सकती है।
३. प्रश्न है प्रतिक्रिया का । कोई व्यक्ति हमारे प्रति दुष्टता का व्यवहार करता है अथवा हमारे अधिकार का हनन करता है तो सामान्यतः यही समझ में आता है कि हमें अपनी रक्षा के लिए हिंसा का प्रयोग करना पड़ेगा। जब इस प्रकार की स्थिति राष्ट्र के सामने आए तो प्रश्न और भी विकट इसलिए हो जाता है कि व्यक्तिगत हितों की तो हम कदाचित् बलि दे भी सकते हैं किंतु राष्ट्रीय हित की बलि तो दी ही नहीं जा सकती।
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