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अहिंसा
૧૬૬ उत्पन्न होने को ही हिंसा कहा है। अध्यात्म की सारी प्रक्रिया रागद्वेष को छिन्न करने की प्रक्रिया है। आणविक शस्त्रों के निर्माण से पहले और आमने सामने के धर्मयुद्ध में अन्याय के विरूद्ध लड़ने का शस्त्र भी कदाचित् साधन हो सकता था, किंतु आणविक शस्त्र का उपयोग अन्याय का साधन तो अनिवार्य रूप से है, अन्याय को मिटाने का साधन किसी भी रूप में नहीं है। बदली परिस्थिति में युद्ध को किसी भी दृष्टि से धर्म घोषित नहीं किया जा सकता।
युद्ध का सामना मनुष्य को जीवन में कभी-कभी करना पड़ता है किंतु युद्ध में होने वाले व्यय का दुष्परिणाम हर मनुष्य को हर दिन इस रूप में भोगना पड़ता है कि क्योंकि पैसा सैनिक कार्यों पर खर्च हो जाता है इसलिए उसके बच्चे के लिए दवाई और शिक्षा उपलब्ध नहीं हो पाती। निश्चय ही तथ्य और आंकड़ों के आधार पर युद्ध की मानसिकता के विरुद्ध एक सार्वभौम बौद्धिक आन्दोलन आज हमारी प्रथम आवश्यकता है।
. युद्ध में नरसंहार होता है लेकिन पारस्परिक व्यवहार में मन, वचन और कर्म की हिंसा तो मनुष्य के लिए इसी जन्म में नरक उत्पन्न कर देती है। प्राचीन आचार्यों ने एक सीधी सी बात से यह समझाया कि हिंसा से हम दूसरों का उपकार तो भले कर सकें या न कर सकें किंतु अपना अहित तो उसी प्रकार कर लेते हैं, जिस प्रकार अग्नि में लाल हुई छड़ को नंगे हाथों से पकड़कर किसी को मारने के लिए दौड़ने पर दूसरे को मार सकें या न मार सकें पर अपना हाथ तो जला ही लेते हैं।
हिंसा एक प्रकार का रोग है, मानसिक असंतुलन का सूचक है। वह वीरता का कार्य नहीं है। अहिंसा कायरता नहीं, एक शक्ति है। अहिंसा एक शक्ति ही नहीं, दूसरे को स्थायी रूप से बदलने का साधन भी है। अहिंसा : कुछ मिथ्या धारणायें
सभ्यता के जन्म के साथ ही मनुष्य जाति ने अहिंसा की बात भी इसलिए सोची कि अहिंसा के बिना किसी समाज का अस्तित्व संभव नहीं था। तब से लेकर आज तक अहिंसा के संबंध में इतना अधिक विचार विनिमय हुआ कि उसके संबंध में अनेक प्रकार की धारणायें बन गईं। उनमें से कुछ मिथ्या धारणायें इस प्रकार हैं:१. प्रत्येक कर्म में हिंसा अन्तर्निहित रहती है। इसीलिए हिंसा के छोड़ने का
अर्थ है-कर्म को छोड़ना। २. सभी फल कर्मजन्य हैं। यदि कर्म छूटेंगे तो फल भी नहीं मिलेंगे, अतः
हिंसा का अर्थ है-गरीबी का जीवन ।
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