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________________ अहिंसा १६३ अन्त में वह भी छूट जाता है। संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। यह सब सनातन सत्य है। किंतु व्यवहार में हम इसे भूले रहते हैं। पर हमारे भूल जाने से सत्य समाप्त नहीं हो जाता। सत्य की विस्मृति मूर्छा बनती है। मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद हिंसा। अहिंसा और अपरिग्रह की युति ___ महात्मा गांधी के पूर्व तक अहिंसा का स्वरूप मुख्यतः आध्यात्मिक था। अध्यात्म का लक्ष्य है मोक्ष। मोक्ष एक व्यक्तिगत लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के साधन मुख्यतः तीन भागों में बंटे हैं-ज्ञानप्रधान, भक्तिप्रधान और आचारप्रधान। जैन और बौद्ध परम्पराएं आचार प्रधान हैं अतः इन दोनों परम्पराओं ने अहिंसा को मुख्य स्थान दिया। आचार्य महाप्रज्ञ ने “अहिंसा परमो धर्मः" के स्थान पर एक दूसरी घोषणा की "अपरिग्रहो परमो धर्मः।" जैसे आइंस्टीन ने विज्ञान के क्षेत्र में यह प्रतिपादित किया कि देश और काल को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता अपितु देश और काल की एक युति है उसी प्रकार आधुनिक युग मे पर्यावरण की समस्या ने यह स्पष्ट कर दिया कि अपरिग्रह और अहिंसा की अवधारणाओं को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता अपितु इन दोनों की एक युति है। जब मैं अपने घर में लकड़ी के भारी भरकम फर्नीचर की जगह जमीन में दरी बिछाकर बैठना ही स्वीकार कर लेता हूं तो मैं अपने परिग्रह को भी सीमित करता हूं। बात इतनी सी ही नहीं है अपितु कहीं अधिक गंभीर है। जब कोई व्यक्ति हिंसा करता है तो उसके मूल में कहीं लोभ या , परिग्रह का भाव रहता है और जब कोई व्यक्ति परिग्रह का संचय करता है तो उसे स्थूल या सूक्ष्म रूप में हिंसा करनी ही पड़ती है। महावीर ने हिंसा को प्रमाद से और परिग्रह को मूर्छा से जोड़कर इन दोनों के पारस्परिक संबंध को उजागर कर दिया है, क्योंकि मूर्छा और प्रमाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अहिंसा और अपरिग्रह की युति को महावीर ने आध्यात्मिक स्तर पर पहचाना, जिस युति का समर्थन पर्यावरणविदों ने व्यावहारिक धरातल पर कर दिया। जैन-बौद्ध परम्परा और महात्मा गांधी के कारण अहिंसा का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक उजागर हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ की पैनी दृष्टि ने यह पहचाना कि परिग्रही व्यक्ति अथवा समाज अहिंसक हो ही नहीं सकता। अहिंसा को घटित करना हो तो अपरिग्रह को अपनाना ही होगा। मार्क्सवादियों को आपत्ति थी कि धनिक वर्ग यथास्थितिवाद को बनाये रखना चाहता है, और इस बात से डरता है कि कोई खूनी क्रांति उनके धन-वैभव को छीनकर गरीबों में न बांट दे। इसलिए वह अहिंसा की रट लगाये रहता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने परिग्रह पर चोट करके यह स्पष्ट कर दिया कि अहिंसा आर्थिक शोषण और विषमता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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