________________
१६२
महाप्रज्ञ-दर्शन न भोग, न दमन
हमारे चित्त में अच्छे संस्कार भी हैं और दूषित संस्कार भी हैं। आज दमन को बुरा माना जा रहा है, किंतु भोगने से बुरे संस्कार समाप्त हो जायेंगे, इसका कोई प्रमाण नहीं है। दूसरी ओर संस्कार को दबाना भी ठीक नहीं है। अतः संयम से काम लेना होगा और इच्छा का परिष्कार करना होगा। हम बुरे से टकरायें नहीं, अच्छे में आनंद की खोज करें, तो बरे का आकर्षण स्वयं ही समाप्त हो जायेगा।
एक शब्द है प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का अर्थ छोड़ना नहीं बल्कि अस्वीकार है। अपनी मनोवृत्ति को ऐसा बनाएं कि वह बुरे को स्वीकार ही न करे। हिंसा दुःख है
हम समझते हैं कि दुःख इसलिए है कि हमारी इच्छाएं पूरी नहीं हो पा रहीं। वस्तुस्थिति यह है कि दुःख इसलिए है कि हमारा मन चंचल है। वेदान्त में सत्य को न देख पाने के दो कारण बताए है-आवरण और विक्षेप। हमें सत्य का पता न लगे, यह आवरण का कार्य है। यह एक पक्ष है। किंतु हमें सत्य का पता लग जाये फिर भी हम सत्य पर स्थिर न रहने पायें, यह चित्त की चंचलता के कारण होता है। यह विक्षेप है। अधिकतर ऐसा नहीं होता कि हम सत्य को नहीं जानते। होता यह है कि हम सत्य को जानते है किंतु सत्य पर टिक नहीं पाते। यही चंचलता है। यही चंचलता अनैतिकता का बीज है। चंचलता से दुःख होता है और दुःख से अनैतिकता, चंचलता न हो तो दुःख भी न हो और दुःख न हो तो अनैतिकता की आवश्यकता ही न पड़े। __ भोग से सुख नहीं होता अपितु प्राण तत्त्व का हास होता है। कषाय भी प्राण तत्त्व को निर्बल बनाती है। यदि यह बात समझ में आ जाये तो यह भी समझ में आ जाएगा कि हिंसा अपने लिए ही दुःखदायी है।
एक उदाहरण लें। मनुष्य इसलिए दुःखी है कि उसे कोई नहीं पूछता। यदि वह यह समझ ले कि वह है ही अकेला तो उसे यह दु:ख नहीं होगा। मनुष्य इसलिए दुःखी होता है कि उसकी कोई सहायता नहीं करता। यदि वह यह मान ले कि उसकी कोई शरण नहीं है, वह स्वयं ही अपनी शरण है तो उसे इस बात का दुःख नहीं होगा कि उसकी कोई सहायता नहीं कर रहा। व्यवहार में हम अकेले नहीं हैं किंतु परमार्थ में हम अकेले हैं। व्यवहार में हमारा परिवार है, धन है किंतु परमार्थ में हमारा कुछ भी नहीं है। व्यवहार में भी जो हमारा है वह सदा नहीं रहता। हमारे सबसे अधिक साथ हमारा शरीर रहता है किंतु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org