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________________ अहिंसा १६१ देता है। शोषण को अनेक बार भाग्य से और भाग्य को कर्म से जोड़ दिया जाता है। कर्म किसी को गरीब नहीं बनाता । व्यक्ति के स्तर पर गरीबी का कारण है-अज्ञान और आलस्य । समाज के स्तर पर गरीबी का कारण है-दोष पूर्ण व्यवस्था। शिक्षा फैले और आलस्य छुटे-गरीबी को मिटाने का यह उपाय है। दूसरा पक्ष है दोषपूर्ण व्यवस्था का। पूंजीवादी व्यवस्था में विषमता रहती है। साम्यवादी व्यवस्था में स्वतंत्रता नहीं रहती। एक मार्ग है-व्रतों की व्यवस्था को हम स्वेच्छा से ऐसी व्यवस्था बनायें कि अति संग्रह की प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं मिले । युद्ध अनेक बार राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुतः लोभ का ही परिणाम होता है। अहिंसा और सामर्थ्य अन्याय का प्रतिकार वही कर सकता है जो समर्थ है। समर्थ का अर्थ है-सह सकने में सशक्त । जो अपने संवेगों पर ही नियंत्रण न रख सके, वह दूसरों के संवेगों का क्या परिष्कार कर सकेगा। इस सामर्थ्य का परीक्षण समूह में होता है। राग-द्वेष को पहचानें __ हिंसा विक्षिप्त मानसिकता से उत्पन्न होती है। जब सब शराब पी रहे होते हैं तो कोई किसी की ओर अंगली इसलिए नहीं उठाता कि सभी नशे में हैं। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि नशे वाला व्यक्ति होश में है। राग-द्वेष से ग्रस्त लोग यह नहीं समझ पाते कि उनकी दृष्टि कलुषित है-क्योंकि वे सभी राग-द्वेष से ग्रस्त हैं। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे लोग स्वस्थ हैं। जैसे शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ व्यक्ति सदी-गर्मी को आराम से झेल लेता है, वैसे ही मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति को सहज ही झेल लेता है। सर्दी-गर्मी को सहन करने के लिए मुख्य उपाय अपनी क्षमता को बढ़ाना है। वातानुकूलन का उपयोग उतना ही ठीक माना जा सकता है, जितना व्यक्ति की आंतरिक क्षमता को क्षति न पहुंचाये। यह समझ में आ जाने पर अपरिग्रह स्वयं ही फलित होता है। प्रदर्शन निरर्थक है . मानसिक विक्षेप का एक लक्षण है-प्रदर्शन का भाव । हम जो कुछ भी करें, वह अपने संतोष के लिए करें दूसरों को दिखाने के लिए नहीं। जो धर्म का आचरण आत्मसंतोष के लिए करता है, उसे यह चिंता नहीं करनी पड़ती कि दूसरे उसकी प्रशंसा करते हैं या नहीं। अहिंसा के लिए जीवन में ये छोटी-छोटी बातें कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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