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________________ १६० महाप्रज्ञ-दर्शन चाहते कि कोई ऐसा पदार्थ जिसे हम चाहते हैं हम से छूट जाए। यही परिग्रह है। हमारा पदार्थों के प्रति संबंध शरीर के माध्यम से है। व्यक्तियों के साथ भी हमारा संबंध शरीर के माध्यम से है। शरीर न हो तो न पदार्थ चाहिए न परिवार । इसलिए पहली आवश्यकता है शरीर के प्रति मूर्छा तोड़ने की। गांधी जी का सत्याग्रह अभय पर टिका था। विदेशी सरकार पिटवाए या मरवाए हमें डरकर सत्य को नहीं छोड़ना है। इस एक सूत्र ने इतनी बड़ी क्रान्ति कर दी कि ब्रिटिश साम्राज्य जैसी शक्ति से भारत जैसे विशाल राष्ट्र को बिना शस्त्र प्रयोग के स्वतंत्रता मिल गई। अहिंसा व्यवहार में सहायक है . अपने छोटे-छोटे दैनंदिन व्यवहार में अहिंसा का प्रयोग सरल है। शुरुआत वहां से की जानी चाहिए कि सामान्य व्यवहार में हम अपना मानसिक संतुलन न खोएं। यह सर्वथा संभव है। इससे सांसारिक व्यवहार में कोई बाधा नहीं आती, अपितु बहुत बड़ा लाभ होता है। भेद में अभेद समाज दो से अधिक व्यक्तियों का होता है। अनेकांत दो से अधिक धर्मों के अस्तित्व को मानता है। विरोधी साथ न रह सकें तो संघर्ष होगा। विरोधी साथ रह सकें तो सहयोग होगा। सहयोग के तीन सूत्र हैं १. हम एक दूसरे के प्रति आश्वस्त हों कि सब अपना कर्तव्य पूरा करेंगे। २. हम एक दूसरे पर विश्वास करें कि कोई धोखा नहीं देगा। ३. हम एक दूसरे से भयभीत न हों कि कोई एक दूसरे को चोट पहुंचाएगा। यह तभी हो सकता है जब हम भेद में छिपे अभेद को देख सकें। जाति, सम्प्रदाय और राष्ट्र भेद उत्पन्न करते हैं। मनुष्यता अभेद उत्पन्न करती है। उपयोगिता के लिए भेद करना जरूरी है। आकाश को बांटे बिना मकान नहीं बन सकता और मकान के बिना निवास नहीं बन सकता। यह उपयोगिता है किंतु आकाश वस्तुतः एक ही है यह वास्तविकता है। अभेद में दृष्टि रहे तो भेद सहयोग का कारण बन सकता है। निर्धनता की समस्या __ हिंसा की बहुत बड़ी जड़ पैसा है। हमारी इच्छाएं बहुत हैं, उसकी तुलना में पदार्थ बहुत कम हैं । इच्छा और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थोपार्जन करना पड़ता है। यह अर्थोपार्जन जब अन्यायपूर्वक होता है, तो हिंसा को जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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