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अहिंसा
१५६ आवश्यकता आहार है। इसलिए आहार से हमारा बहुत मोह है। आहार संयम का अर्थ है-शरीर का मोह छोड़ना। आहार संयम का एक दूसरा प्रयोजन है-मन की निर्मलता। एक पुरानी कहावत है-जैसा अन्न, वैसा मन। जितने आविष्कार हिंसक उपायों से हुए हैं उनमें से अधिकांश का प्रयोजन मनुष्य के शरीर को सुख पहुंचाना है। हममें शरीर के सुख की इच्छा जितनी प्रबल होगी हमारे द्वारा उतनी ही अधिक हिंसा होगी। अन्न का मन से संबंध भी विज्ञान सम्मत है। विटामिन “ए” की कमी हो तो व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है। विटामिन “बी” की कमी हो तो व्यक्ति भयभीत रहता है। सिरोटोनिन या ट्रिप्टोफेन की कमी हो तो और भी अन्यमनस्क हो जाता है। दूसरी ओर नमक अधिक लिया जाए तो रक्तचाप बढ़ जाता है। अल्कोहल का प्रयोग तो प्रत्यक्ष में ही मानसिक असंतुलन पैदा कर देता है। परिणाम स्पष्ट है। हम जैसा बनना चाहते हैं, वैसा भोजन करें। उपवास का अपना महत्त्व है। जब भोजन नहीं किया जाता तो शरीर के विष बाहर निकलते हैं। वासनाएं शांत होती हैं। श्रम और अहिंसा
शरीर को साधने का एक उपाय है-योगासन और शारीरिक श्रम। श्रम भी विष को बाहर निकालता है और साथ ही मानसिक तनाव को कम करता है। यह सब उपाय हिंसा की जड़ पर चोट करते हैं। अनाग्रह और अहिंसा
हिंसा के पीछे एक कारण है पूर्वाग्रह । हमने कुछ सत्यों को स्वतः सिद्ध मान रखा है। यदि ये सत्य वस्तुतः स्वतः सिद्ध होते तो यह सत्य सबको एक जैसे ही प्रतीति में आते। किंतु ऐसा नहीं होता। ये सत्य स्वतः सिद्ध नहीं हैं अपितु हमारे संचित संस्कारों से उत्पन्न हुए हैं। जब तक हमारे संस्कार हैं, तब तक पूर्वाग्रह बने रहेंगे और जब तक पूर्वाग्रह हैं तब तक संघर्ष बना रहेगा। संस्कारों के परे जाने का अर्थ है विचार और विकल्प के परे जाना। विचार और विकल्प के परे जाना ही ध्यान है। कम्यूनिस्ट व्यवस्था में एक शब्द प्रचलित है-ब्रेन वाशिंग-जिसका अर्थ है मस्तिष्क का प्रक्षालन। किंतु वहां मस्तिष्क को रंगा जाता है, धोया नहीं जाता। मस्तिष्क का वास्तविक प्रक्षालन ध्यान द्वारा संभव है। हम निर्विकल्प अवस्था में तटस्थ हो पाते हैं और तब देखते हैं कि सभी सत्य सापेक्ष हैं, निरपेक्ष तो केवल अस्तित्व है। ऐसे में साम्प्रदायिकता के आधार पर की जाने वाली हिंसा की नींव ही खिसक जाती है। अभय और अहिंसा
हिंसा का एक दूसरा कारण है भय और भय का कारण है कि हम नहीं
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